– प्रतिदिन -राकेश दुबे

पूरा भारत भाषा भूषा भोजन व्यवहार से अलग-अलग जोन में बांटा जा सकता है।हर जोन की अपनी मिट्टी, मौसमों का क्रम और जैव विविधता अलग होने से मानव का व्यवहार भी पृथक है । बदलते परिवेश के कारण कुछ जरूरी, नए पेड़ों की प्रजातियां जो अलग- अलग प्रवासी कबीले परदेस से अपने साथ कुछ नया लाते गये । जिससे भारत विविधता का एक समूह बन गया ।

इस समय उत्तर भारत के मैदानों में हवा का प्रदूषण अपने चरम पर जा रहा है। सांस लेना दूभर, आंखों में तकलीफ, छोटे बच्चे और दमे के मरीजों हालत हमेशा की तरह खराब हो रही है। सरकारी दबाव और स्व नियंत्रण से इस बार दीपावली पर पटाखे चलाना कम हुआ, पर प्रदूषण के स्रोत उससे कहीं बड़े और गहरे हैं। अफसोस कि वे सीधे उस सरकारी विकास के खाके से जुड़ी हुई हैं जो हर माल के अतिरिक्त उत्पादन और गैर जरूरी खपत से जुड़ा हुआ है। खेती भी उसके दायरे में आ गई और अस्वस्थ हुई है।

गुजरात और राजस्थान में खेती की बजाय पशुपालन को महत्व दिया गया था तो इसलिए कि वहां की भूमि और आबोहवा इसके लिए अनुकूल थी। फिर हरित क्रांति आई जिसने नहर सिंचित गंगा नगर इलाके को धान बोना सिखाया और इसके लिए जो सरकारी सब्सिडियां मिलती थीं, उनको देख कर गेहूं उत्पादक पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी धान की फसल बोई जाने लगी। हम मानें न मानें, उत्तरी मैदानों के सिंचित इलाकों में परंपरागत फसलों की बजाय धान की खेती का मसला जो पराली पैदा कराता है, सीधे सरकारी सब्सिडियों तथा खरीद से जुड़ा हुआ है।
हर चुनाव में खुद को किसानों का मसीहा बतलाने वाले राजनीतिक दल नई तरह के बीज से लेकर रासायनिक उर्वरक और खरीद के दामों तक पर चुनाव-दर-चुनाव सब्सिडी बढ़ाने का सपना दिखाती हैं। किसान आंदोलनों का इतिहास उठा कर देख लें, अधिकतर खेती की कुल खपत मोल के हिसाब से खरीद के दाम तय कराने से सिंचित इलाकों में ही उपजे हैं और चुनाव में आरक्षण और सब्सिडी पाकर बिखर जाते हैं। सस्ती रासायनिक खाद, मुफ्त बिजली-पानी और बाहर से आए तथा कथित उन्नत नस्ल के बीजों, छिड़काव की दवाओं को खुली अर्थव्यवस्था के परिदृश्य से और जोड़ दीजिए। इनके बीच रासायनिक संविलयन से जो घातक और दूरगामी बबाल उफन रहे हैं, उनपर न तो हमारे सरकारी वैज्ञानिक और न ही किसान आंदोलन के नेता किसी लंबी समग्र बातचीत की पहल करते दिख रहे हैं। की होती तो दक्षिण भारत के किसानों को दिल्ली तक पैदल चल कर धरने देने की जरूरत क्यों होती?
जरा सोचिये धुआं उगलते संयंत्र, पक्के राजपथ, ओवरब्रिज, अंडरपास और लाखों मोटरों की आवाजाही महानगरों के विकास का प्रमाण हैं, इनके नित नए विस्तार की घोषणा सगर्व की जाती है कि देखो हमने इस नगर को नया टोक्यो या पेरिस बना दिया। सच तो यह है कि दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, बेंगलुरु हमारा कोई महानगर शेष नहीं है जिसकी हवा लाखों वाहनों के आने-जाने और निर्माण कार्यों से फैल रही धूल से सराबोर न हो।

पंजाब और हरियाणा के समृद्धतर किसान अब पहले की तरह खेतों में खड़ी पराली का चारा या सोने का गद्दा नहीं बनाते। उसे खेत में पलीता लगा कर उसके धुएं के गुब्बार भी आस-पास के शहरों की तरफ रवाना कर देते हैं। मानव- निर्मित विकास का खाका जिसने दलों को चुनाव जितवा कर बड़े उपक्रमियों और सरकारों की तिजोरियां भर दी हैं, अब अधिक दिन तक मौसम के नियम नहीं बदल सकता। नतीजतन ठंड के मौसम में जब प्रदूषित हवा ऊपर नहीं उठ पाती तो शहर-गांव के हर अमीर-गरीब खासकर बच्चों, बूढों, श्वास रोगों के मरीज की जानपर बन आती है। फिर इस बरस तो कोरोना का कहर भी इस कष्टकारी फेहरिस्त से आन जुड़ा है। डॉक्टरों के अनुसार, प्रदूषण बढ़ा है इसलिए जाड़े आते ही रोग से मरने वालों की तादाद भी पहले से काफी बढ़ गई है।
भारत के गंगा-जमुनी इलाके में रासायनिक उर्वरकों के बढ़ते इस्तेमाल, पशुपालन और खेती से जुड़ी डीजल चालित मशीनरी (कंबाइन हारवेस्टर, पावर प्लांट और पंपों आदि) का प्रयोग इसी विकास के सपने की तहत बढ़ा है। पर अब उनसे ही लगातार कार्बन उत्सर्जन होते-होते वातावरण में छोटे-छोटे कणों वाले सेकेंडरी पर्टीक्युलेट मैटर की मात्रा खतरनाक हद तक बढ़ गई है। जल, जमीन और पर्यावरण सब में खतरनाक अमोनिया की मात्रा तो इतनी बढ़ गई है कि शोध के अनुसार, भारत में चीन के बाद सबसे अधिक घातक अमोनिया हॉट स्पॉट बन गए हैं।
गाँव से लेकर शहर और शहर से महानगर तक सब प्रदूषण उत्सर्जन के केंद्र बने हुए हैं । सरकार इसी को विकास कहती है।वो अपनी आदत से मजबूर है, हम अपनी आदत से । कुल मिलाकर हम सब अपने हाथों से अपनी मौत के फरमान पर दस्तखत कर रहे हैं ।