यह बात सौ टंच खरी है,”जब सरकारें अपने सामाजिक दायित्वों के निर्वहन में असफल होती है तो समाज आगे आता है और जब समाज का नेतृत्व कमजोर आलसी और भ्रष्ट होता है तो कानून बनते हैं |” भोपाल के अनाथों,अशक्त, वृद्ध निराश्रित रोगियों की भी यही कहानी है | सरकार के पंचायत और समाज सेवा विभाग ने इस वर्ग के लिए कुछ किया पर वो समर्पण के अभाव में एक असफल प्रयोग साबित हुआ | अनाथलय, वृद्ध आश्रम,और अन्य खूबसूरत नामों से सामजिक उपक्रम बने चले और उनके साथ अच्छी बुरी कहानियों के बाज़ार गर्म हुए | बालक- बालिकाओं के शोषण से लेकर लाशों के व्यापार तक की कहानियों बनी बिगड़ी | सरकार ने जाँच की फिर हमेशा की तरह उनका मुकाम ठंडा बस्ता हो गया | भोपाल में ये संस्थाए हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर भी बंटी और सरकार कभी इसको कभी उसको खुश करती रहीं | अनुदान, संस्था से सरकार बंटता रहा पर सडक पर निराश्रित बढ़ते रहे | ऐसे में एक संस्थान भरतपुर राजस्थान से अन्य प्रदेशों की यात्रा करता हुआ भोपाल पहुंचा और उसने अपनी क्षमता के अनुसार ५० निराश्रितों को “प्रभु” नाम दे दिया | बरकतुल्ला विश्वविद्यालय के सामने नारायण नगर में स्थित “अपना घर” में.इन “प्रभुओं” की सेवा के दर्शन सुलभ है |
लोकतांत्रिक सिद्धांतों से पता चलता है कि नीतियाँ तभी बनती हैं जब लोग मुखर होकर अपनी समस्याएँ सामने रखते हैं| अनेक प्रकार के हितों का संवर्धन करने वाले समूहों द्वारा माँग करने पर ही कानून बनाये जाते हैं| इस संबंध में किये गये शोध-कार्यों से इस बात की पुष्टि फिर हुई कि कानून बनने की प्रक्रिया में कारोबार की दुनिया की बहुत बड़ी भूमिका होती है, क्योंकि वे स्थानीय अर्थव्यवस्था को चौपट करने की क्षमता रखते हैं|वैसे यह एक ऐसा इकलौता कानून है जिसके निर्माण में समाज के किसी वर्ग की कोई स्पष्ट भूमिका नहीं थी|
जब सन् २०११ में योजना आयोग ने कॉर्पोरेट संस्थानों के लिए सामाजिक अपेक्षित दायित्वों के निर्वाह के लिए अपनी वार्षिक निधि में से २ प्रतिशत निधि अलग रखने की बात कही थी तब इस कानून का मुखर विरोध हुआ था | भारत की अधिकांश कंपनियों के भी विरोध थे| ये कंपनियाँ इस नये कानून का पुरजोर विरोध कर रही थीं| उनका यह तर्क भी था कि कराधान की ऊँची दरों की तुलना में २०१३ के कंपनी अधिनियम की अपेक्षाएँ कहीं अधिक विवेकपूर्ण थीं, लेकिन उन्हें दरकिनार करके यह कानून पारित कर दिया गया| झुनझुनवाला समूह सहित कुछ समूह जैसे बिरला और टाटा समूह ने सामाजिक सरोकार की अपनी पूर्ववत परम्परा को यथावत रखा |
विरोध करने वाले मानते हैं “यह शासन व्यवस्था की आउटसोर्सिंग है| सरकार इस तरह का कानून बनाकर अपनी ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने का प्रयास कर रही है और अपनी ज़िम्मेदारियों को कारोबार जगत् की ओर ढकेल रही है. परोपकारी संस्थाएँ, गैर सरकारी संस्थाएँ, कारोबारी और अर्थशास्त्री, सरकार की इस सोच के इधर-उधर खड़े हो सकते हैं | परन्तु, जो सरकारी दबाव और कानून बनने से पहले मानवता के साथ खड़े हैं, उनका अभिनन्दन |