– प्रतिदिन। -राकेश दुबे
देश की संसद और विधान सभाओं में इस समय जो सांसद और विधायक हैं उनमे अपने को ”किसान” और अपना धंधा “किसानी” लिखाने वाले चौधरियों की संख्या ज्यादा है। यह चलन पिछली कई संसद और विधानसभाओं के सत्रों से यथावत है फिर भी देश का किसान संत्रास में है और हर साल किसानी छोड़ने वालो की संख्या भी बहुत बड़ी है । किसानी के नये कानून लाने वाली सरकार अब कह रही है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था बरकरार रहेगी, यदि सच में ऐसा है तो फिर इसे नये कानून में शामिल क्यों नहीं किया गया?
संसद और विधान सभाओं में बैठने और उन तक पैठ रखने वाले किसानो को छोड़ दें तो आम किसानों के लिए नये कृषि कानूनों की घोषणा मौत का आखिरी फरमान बनकर आई है। अन्य मुद्दों पर चर्चा छोड़ भी दें तो कुछ सवाल खड़े होते हैं ।क्यों अब तक न्यूनतम समर्थन मूल्य का विकल्प नहीं ढूंढ़ा गया? क्यों एफसीआई पहले की तरह फसल की खरीद नहीं कर रहा? क्यों किसान को लूटने को बड़े व्यापारिक घरानों को खुली छूट दी जा रही है? क्या किसानों की ओर से नये कृषि-कानून बनाने की मांग उठी थी? क्या किसी राज्य सरकार ने इनके लिए पहल की थी? फिर कैसे केंद्र सरकार ने बिना सहमति के , किसानों के भले के नाम पर एकतरफा निर्णय ले लिया? अब यदि केंद्र कह रहा है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था बरकरार रहेगी, यदि सच में ऐसा है तो फिर क्यों नहीं इसे नये कानून में बाकायदा शामिल किया गया?
आज किसान को बड़े घरानों के रहमोकरम पर छोड़ा जा रहा है, जो बेहिचक उनकी जमीन हड़पने लगेंगे? महज दो-ढाई एकड़ का मालिक किसान किसी खरबपति से कैसे कानूनी लड़ाई लड़ या जीत पाएगा? इतना तय है वह अपनी भूमि गंवाने को हरगिज़ तैयार नहीं है क्योंकि यह किसान के लिए धरती माँ है, जो उसे निश्चिन्तता का अहसास कराती है। आगे अब वह इस मुद्दे पर सामूहिक आत्महत्या की जगह कोई और रास्ता खोजेगा।
संसद और विधानसभा में बैठे किसान “उत्पादक किसान “ के को उत्पाद का मूल्य तय नहीं करा सके । यह काम सरकार या फिर खरीद एजेंसियां करती थी और करती हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य तय होने के बावजूद खरीद एजेंसियां गुणवत्ता व अन्य बहाने बनाकर औने-पौने दाम देने को मीन-मेख निकालती थी और हैं।