-क्या बीजेपी गठबंधन धर्म व स्थानीय मुद्दों की अनदेखी करना हार के कारण है ? अशोक सिंह राजपुरोहित

नई दिल्ली. झारखंड की हार ने बीजेपी के सफलता के अश्वमेघ का घोड़ा यहां आकर यकायक ठिठक गया है.बीजेपी को सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या गठबंधन ना करना और लगातार केन्द्रीय मुद्दे उठाना व स्थानीय मुद्दे की अनदेखा करना हार के कारण हो सकता है। स्थानीय नेताओ को अब सोचना पड़ेगा कि हर बार मोदी के भरोसे से चुनाव नहीं जीत सकते हैं कुछ स्थानीय मुद्दों व लोगों के लिए काम करके ही जीत सकते हैं अब आलाकमान को भी सोचना पड़ेगा कि हर राज्य की परिस्थिति के हिसाब से राजनीति कर चुनाव जीत सकते हैं ना कि हर बार मोदी के नाम से वोट लेकर जीतेगें।

लोकसभा चुनाव के दौरान राज्य में बीजेपी को जितने वोट मिले थे को आधार बनाया जाय तो झारखंड में पार्टी को साठ से ज्यादा सीटें मिलती. उसी बीजेपी को आखिर हुआ क्या, कैसे एक जोरदार पार्टी मई की गगनभेदी जीत के बाद यहां पाताल में आ गिरी, आखिर कहां चूक हुई है, इन सवालों के जवाब अभी खोजे जाने हैं.इन सबके बीच टीवी चैनलों पर एक परिवार आकर्षण का केंद्र बना हुआ है. जी हां, वो दिशोम गुरु जी यानी शिबु सोरेन का परिवार. देखने में अति साधारण सा परिवार नजर आता है हालांकि गुरुजी का अतीत भी कम विवादों से से घिरा नहीं रहा, लेकिन ये कैसे हुआ ये सब जानना चाहते हैं.झारखंड की जीत दरअसल इशारा करती है कि आदिवासी महत्वाकांक्षाओं को ज्यादा देर तक नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. जेएमएम की जोरदार वापसी इसी ओर इशारा करती है. दरअसल यहां बीजेपी ने गैरआदिवासी राजनीति को आधार माना और गैर आदिवासी रघुवार दास को राज्य की कमान सौंपी. जानकार मानते हैं कि आदिवासियों में रघुवर सरकार के आदिवासियों पर ध्यान न देने की शिकायत थी. साथ ही आदिवासी अपने बीच से ही कोई बड़ा नेता चाहते थे. जेएमएम की वापसी इसी बात का प्रमाण है.अब सवाल ये है कि आदिवासी बहुल झारखंड में बीजेपी ने एक बार फिर एक गैर आदिवासी सीएम केंडिडेट क्यों बनाया. दरअसल इसके पीछे बीजेपी की जो मास्ट्रर स्ट्रोक स्ट्रेटजी है. लगता है वो अब काम नहीं कर रही. जो फार्मूला लगातार बीजेपी ने हरियाणा, झारखंड, महाराष्ट्र को पहले जीता था, अब वही स्ट्रेटजी उनकी मुसीबत बनती जा रही है. असल में बीजेपी ने नए राज्यों में अपनी पहुंच बनाने के लिए नए राजनीतिक ध्रुव बनाने की कोशिश की थी जो अब काम नहीं आ रही.अगर हम पीछे मुड़ कर देखें तो पता चलेगा कि बीजेपी ने अधिकतर राज्यों में अपना आधार वहां मौजूद प्रमुख और प्रभावी जातिगत या क्षेत्रीय समूहों के इतर बनाया है. उदाहरण के लिए लंबे वक्त तक पटेलों का गुजरात की राजनीति में प्रभुत्व रहा, लेकिन नई व्यवस्था में पटेल समुदाय का सीएम नहीं है. बीजेपी की इस नीति के चलते उन्हें लंबे समय बाद गुजरात में कांग्रेस से बड़ी टक्कर का सामना करना पड़ा.

हार्दिक पटेल बीजेपी के लिए एक बड़ी मुसीबत बनकर उभरे.कमोवेश यही हाल महाराष्ट्र में रहा जहां बीजेपी जब 2014 में पहली बार जीती तो उसने पुरानी परंपराओं को तोड़ते हुए एक गैर मराठी को सीएम बनाया. बीजेपी के ये नीति काफी हद तक कामयाब रही, लेकिन चुनावों में मराठा नाराजगी साफ नजर आई और जब शिवसेना ने सीएम पर दावा ठोक दिया तो यकायक सारे मराठा क्षत्रप एक साथ हो गए यहां नई परिस्थितियों में बीजेपी को सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद सत्ता से पीछे हटना पड़ा.हरियाणा का हाल भी ऐसा ही कुछ रहा. यहां बीजेपी ने गैरजाट राजनीति को अपना आधार बनाया. उसका ये दांव 2014 में सफल भी रहा और लंबे समय बाद हरियाणा में गैरजाट सीएम बना लेकिन इस साल हुए विधानसभा चुनाव में जाटों की लामबंदी ने बीजेपी को मुश्किल में डाल दिया और सूबे में उससे जाट नेटा दुष्यंत चौटाला की की पार्टी के साथ साझेदारी करनी पड़ी.नए हालात इशारा कर रहे हैं कि बीजेपी को न सिर्फ अपने मुद्दों बल्कि अपनी क्षेत्रीय नीतियों पर भी दोबारा से विचार करना होगा ताकि नए माहौल में नई सफलताएं गढ़ी जा सकें और हर दिन सिकुड़ते राज्यों के आधार को फिर से बढ़ाया जा सके. बड़ा सवाल ये कि खुद को सौ फीसदी सही मानने के नाड़ीदोष से बाहर निकल ऐसा करेगी या नहीं۔