राकेश दुबे
· असम अशांत है, अशांति पूर्वोत्तर में और पैर पसार सकती है | पूर्वोत्तर में प्रदर्शनों को छात्रों के संगठन आसु का समर्थन मिला गया है , बीते पांच दिनों डिब्रूगढ़, जोरहाट, अगरतला में हालात खराब हुए|
· प्रधानमंत्री मोदी और जापान के प्रधानमंत्री आबे की मुलाकात १५ से १७ को गुवाहाटी में होनी थी, पूर्वोत्तर में हिंसा भड़कने के बाद आयोजन ही स्थगित
· नागरिकता संशोधन विधेयक को गुरुवार को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की मंजूरी मिल गई है अब यह कानून हो गया है

परन्तु,
· सवाल यह है कि यह सब जल्बाजी में हुआ है या राजनीति कोई नया खेल दिखा रही है ?
इसी बात को लेकर कुछ महीने पहले भी ऐसे विरोध-प्रदर्शन से असम में जनजीवन बाधित हो गया था। नारे वही थे, “जोय आइ असम।“ चिंता वही थी, ‘खिलोंजिया’ (मूल निवासी) के अधिकार। जब आधी रात को लोकसभा ने संशोधन विधेयक पारित किया, तब असम के पड़ोसी राज्यों में भी विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गए, जो अब तक जारी हैं । ऐसा लगने लगा है नागरिकता को फिर परिभाषित करने की नई कोशिश ने उस पुराने सवाल को जिंदा कर दिया है कि कौन स्थानीय है और कौन बाहरी?
इस कानून का असम में सबसे मुखर और स्पष्ट विरोध है। असम के लोगों को ऐसा लग रहा है कि उन्हें किनारे कर दिया गया है। गृह मंत्री अमित शाह यह स्पष्टीकरण कि उन राज्यों में यह कानून लागू नहीं होगा, जो इनर लाइन परमिट या छठी अनुसूची के दायरे में आते हैं।

असम के कुछ ही जिलों में छठी अनुसूची लागू है। छठी अनुसूची तो जनजातीय परिषदों को ज्यादा स्वायत्तता देती है। चूंकि असम इनर लाइन परमिट वाला राज्य नहीं है, इस तरह यह पूर्वोत्तर का अकेला ऐसा राज्य बन जाएगा, जहां बांग्लादेश से आए अवैध हिंदू शरणार्थी बसाए जा सकेंगे। स्वाभाविक है, ऑल असम स्टूडेंट यूनियन और अन्य अनेक नागरिक संगठन ठगा महसूस कर रहे हैं। जो असम समझौता हुआ था, उसमें सहमति बनी थी कि १९७१ से पहले जो लोग असम में आ गए हैं, उन्हें नागरिकता दी जा सकती है, लेकिन अब भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार २०१४ तक आए अवैध शरणार्थियों को भी नागरिकता देगी। अकेले असम में लाखों लोगों को नागरिकता मिल जाएगी।
वैसे पूर्वोत्तर में २३८ मूल जनजातियां ऐसी हैं, जो आस्था से हिंदू नहीं हैं। इसके बावजूद पूर्वोत्तर के सात राज्यों की जनजातियां परस्पर मिलकर रहने पर कमोबेश सहमत हैं, लेकिन बाहरी लोगों को यहां बसाने की किसी भी कोशिश के प्रति सभी सशंकित हैं। चिंता सभी बाहरी लोगों को लेकर है, धर्म यहां कोई मायने नहीं रखता। उदाहरण के लिए, अरुणाचल प्रदेश बौद्ध चकमा को नागरिकता देना नहीं चाहता, मिजोरम ब्रू और रियांग को बसाना नहीं चाहता। ये तीनों जनजातियां बांग्लादेश से आई हैं।
सवाल यह है कि क्या नए राष्ट्रीय कानून से इन राज्यों के छोटे जनजाति समूहों की नींद उड़ जाएगी? क्या यह एक स्थाई चुनाव मुद्दा बन जाएगा?लोगों को लग रहा है कि भाजपा ने असम को बाकी राज्यों से अलग कर दिया, ताकि इस कानून के विरोध की कमर टूट जाए। साथ ही, सत्ताधारी पार्टी के लिए पूरे पूर्वोत्तर से जूझने की बजाय केवल असम से निपटना आसान हो जाए। लेकिन भाजपा ने इस कानून के असर का गलत आकलन कर लिया है। जनजातियों में ज्यादातर लोग ईसाई हैं, वे इस कानून को शक की निगाह से देख रहे हैं। उन्हें लगता है, कानून का मकसद बांग्लादेश से आए हिंदुओं को बसाना है। त्रिपुरा का उदाहरण सामने है कि कैसे कुछ ही दशकों में यहां के मूल निवासी ३२ प्रतिशत आबादी तक सिमट गए। राज्य को अब ऐसे लोग चला रहे हैं, जो पूर्वी पाकिस्तान या बांग्लादेश से आए हैं। त्रिपुरा में बांग्ला बोलने वाली आबादी बहुसंख्यक हो गई है। ऐसी स्थिति कमोबेश क्षेत्र के दूसरे राज्यों में भी है। मेघालय के शिलांग में ही दस गुणा दस वर्ग किलोमीटर का एक बड़ा इलाका है, जिसे यूरोपीय वार्ड कहा जाता है। यह छठी अनुसूची से बाहर है। इस इलाके में भारी आबादी है। कुछ इलाकों में झुग्गियां हैं, जहां बांग्लादेशी मूल के लोग ने कब्जे कर रखे हैं। कानून का विरोध करने वाले जानते हैं कि मेघालय में १.७० करोड़ बांग्लादेशी हिंदू हैं, जिनका दावा है कि उन्हें उनके देश में सताया गया। ऐसे लोग अब मेघालय और असम की बराक घाटी में बसना पसंद करेंगे, क्योंकि यहां बांग्ला बोलने वाली आबादी पहले से ही बड़ी संख्या में रह रही है। मेघालय ने समाधान के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है।

इस सब के राजनीतिक निहितार्थ क्या हैं? क्या यह सिर्फ भाजपाकी जल्दबाजी में की गई आश्वासन पूर्ति है या प्रधानमन्त्री का यह कथन सही है कि “ झूठ बोल कर कांग्रेस पूर्वोत्तर में आग लगा रही है|” सही अर्थों में यह सब चुनाव के पूर्व की कवायदें हैं |