प्रतिदिन। -राकेश दुबे
किसान और किसानी को लेकर डेढ़ महीने से चल रहे आन्दोलन ने बहुत से व्यक्ति संगठनो और संस्थानों के मुगालते तोड़ दिए हैं । इनमें अपनी स्थापना की शताब्दी मना चुके सन्गठन , अपनी स्थापना शताब्दी के एकदम नजदीक खड़े सन्गठन और अपने अनुषांगिक सन्गठन के माध्यम से समाज के किसी भी क्षेत्र में अपने दखल को ही वर्चस्व मान बैठने वाले सन्गठन भी है । भारतीय समाज और उसकी रीढ़ किसान और किसानी आज जिस दिशा में चल पड़ा है, ठीक नही है।
फ़िलहाल इन कानूनों के अमल पर फौरी तौर पर रोक लगाना और चार सदस्यों की एक समिति का गठन कहता है कि देश की सर्वोच्च अदालत तथ्यों और तर्कों की कसौटी पर कानूनों को देखना चाहती है। इस अंतरिम फैसले से यही संदेश निकलता है कि केंद्र सरकार और किसान, दोनों को अदालत यह मौका दे रही है कि वे चार कृषि विशेषज्ञों की नजर से कानूनों को परखें और यदि इनमें संशोधन की दरकार है, तो उन्हें जल्द से जल्द अमल में लाएं, ताकि टकराव टाले जा सकें।
देश के किसान अपनी मर्जी से फसल उत्पाद अरसे से निजी कारोबारियों को बेचते रहे हैं, और सौदा न पटने पर किसी दूसरे कारोबारी के पास जाते रहे हैं। वायदा खेती भी पहले से ही जारी है। हां, नए कानूनों में यह प्रावधान किया गया था कि ऐसे किसी समझौते में कारोबारी किसानों से उनकी जमीन नहीं खरीद सकते। यह किसानों के हक की ही बात थी, मगर अब इस पर भी रोक लग गई है, यानी इस नए अदालती फैसले के बाद वायदा खेती से किसानों की हैसियत में कोई सुधार नहीं हो सकेगा।
यूँ तो इन कानूनों को लागू करने में सरकार की कोई भूमिका थी भी नहीं। वह सिर्फ कारोबारियों और किसानों के बीच कड़ी का काम कर रही थी। मसलन, किसान यदि शिकायत करता कि वायदे के मुताबिक कारोबारी ने उसे पैसे नहीं दिए या शर्तों का उल्लंघन हुआ है, तो सरकारी संस्थाएं उस कारोबारी को वायदा खेती से जुड़ी शर्तों को मानने के लिए बाध्य करतीं। अब आगे होगा क्या? शीर्ष अदालत द्वारा जिन चार विद्वानों की समिति बनाई है अपनी राय देगी और उस पर फैसला आयेगा ।
भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष भूपिंदर सिंह मान, जाने-माने कृषि विशेषज्ञ और अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान के प्रमोद कुमार जोशी, कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी और शेतकरी संगठन के अध्यक्ष अनिल घनवत इसके सदस्य हैं। ये सभी खेती-किसानी से जुड़े मुद्दों से भली-भांति परिचित हैं। अदालती फैसले के मुताबिक अब यह समिति कानूनों में मौजूद खामियों को देखेगी और यह तय करेगी कि इनमें कहां-कहां संशोधन की दरकार है। समिति के गठन से अब इन कानूनों की तमाम गड़बड़ियां सार्वजनिक हो सकेंगी और आम लोगों को भी यह पता चल सकेगा कि इनमें किस तरह के सुधार होने चाहिए।सरकार इस तरह की समिति के गठन की बात पहले से करती रही है, जबकि किसान संगठन इसके खिलाफ थे। इसका मतलब है कि शीर्ष अदालत ने सरकार की बात को तवज्जो दी है। वह इससे सहमत दिख रही है कि गड़बड़ियों को दुरुस्त करना ही तात्कालिक हल है । यही बात किसान संगठनों को नागवार गुजर रही है।
अब बात यहाँ उलझ गई है कि समिति के सामने किसान संगठन नहीं पहुंचते, तो इससे सर्वोच्च न्यायालय की छवि को धक्का लग सकता है। एकाध कृषक संगठन ने समिति पर हामी भरी है, लेकिन उनका जाना या न जाना शायद ही मायने रखेगा। इसका साफ-साफ अर्थ है कि अदालत के रास्ते इस मामले को अंजाम तक पहुंचाना दिवा-स्वप्न साबित हो सकता है। अदालत किसानों के प्रति जरूर सहानुभूति रखती दिख रही है, लेकिन समाधान देश की संसद से ही निकलेगा । समिति की सिफारिशों पर गौर करते हुए अदालत आने वाले दिनों में किसी भी तरह का फैसला दे सकती है, जो इस विवाद को क्या मोड़ देगा अभी से भविष्यवाणी करना कठिन है ।इतना तय है, अभी बहुतों के मुगालते टूटे है, कुछ और जल्दी टूट जायेंगे ।