डॉ. वेदप्रताप वैदिक
चीन के राष्ट्रपति शी चिन फिंग के ज्यों ही भारत आने की घोषणा हुई, कश्मीर के बारे में चीनी सरकार ने ऐसा बयान जारी कर दिया कि आज यदि भारत में इंदिराजी की सरकार होती तो चीनी राष्ट्रपति की यात्रा ही शायद स्थगित हो जाती। लेकिन इस समय दोनों देशों के स्वार्थ ऐसे अटके हुए हैं कि उल्टा बोलते हुए भी चीनी राष्ट्रपति को भारत आना पड़ा है और अपने 56 इंच सीने वाले प्रधानमंत्री को भी उनका स्वागत करना पड़ रहा है। चीनी सरकार ने इमरान खान की चीन-यात्रा के बाद दो-टूक शब्दों में कहा है कि कश्मीर में भारत की एकतरफा कार्रवाई को वह ठीक नहीं समझती है याने वह धारा 371 और 35 ए को हटाना उचित नहीं मानती। उसका कहना है कि कश्मीर का मसला संयुक्तराष्ट्र संघ के प्रस्तावों के अनुसार हल होना चाहिए याने वह भारत का आंतरिक मामला नहीं है, जैसा कि भारत दावा कर रहा है। उसने यह भी कहा है कि भारत और पाकिस्तान कश्मीर के मामले को बातचीत से हल करें।

उसने चीन और पाकिस्तान की इस्पाती-दोस्ती का भी हवाला दिया है लेकिन भारतीय प्रवक्ता ने बड़ी नरमी से इस चीनी तेवर का जवाब दिया है। उसने अपना पुराना राग दोहरा दिया है। यदि वह सख्ती दिखाता तो शी की यह यात्रा ही भंग हो जाती। भारत सरकार ने तय किया है कि शी के साथ वह कश्मीर का मुद्दा उठाएगी ही नहीं ? क्यों नहीं उठाएगी ? उसे किस बात का डर है ? वह कश्मीर पर चीनी रवैए का मुद्दा जरुर उठाए। कश्मीर पर चीनी रवैया बड़ा मजेदार है। वह कभी ठंडा, कभी गरम हो जाता है।

याने चीन, भारत और पाकिस्तान, दोनों को उल्लू बनाता रहता है। उसे पाकिस्तान में ग्वादर के बंदरगाह पर और भारत के विशाल बाजार पर भी कब्जा करना है। इसीलिए कोई आश्चर्य नहीं कि वह महाबलिपुरम में मीठी-मीठी जलेबियां परोसने लगे। अभी चीन अपने व्यापार को अमेरिका से हटाकर भारत की तरफ मोड़ना चाहता है। वह पहले ही भारत को 60 बिलियन डालर का निर्यात ज्यादा कर रहा है। उसने भारत के लगभग सभी पड़ौसी देशों में अपना जाल बिछा दिया है। ऐसे में चीन के नरम-गरम तेवरों को बर्दाश्त करना भारत की मजबूरी है। वरना, भारत को कौन रोक रहा है ? वह भी हांगकांग, तिब्बत और सिंक्यांग के उइगर मुसलमानों का मुद्दा उठा सकता है।