(अशोक भाटिया,) टी वी पर लगातार बहस चल रही है कि दिल्ली में हुई 48 मौतों का जिम्मेदार कौन ? हर आधे घंटे में चेहरे बदल जाते है पर आरोप – प्रत्यारोप का स्वरुप एक ही रहता है |

हर राजनैतिक दल हिंसा व हिंसा भड़काने वाले भाषणों के लिए दूसरे दल को जिम्मेदार ठहराता है व् जताने की कोशिश करता है ही उसकी कमीज़ सामने वाले की कमीज़ से उजली कैसे ?दरअसल दिल्ली को मौजूदा हालात में धकेलने के लिए सभी जिम्मेदार हैं सरकार, विपक्ष, विभिन्न मुस्लिम नेता, प्रशासन, न्यायपालिका, मीडिया। आज इनमें से कोई भी खुद को दूध का धुला नहीं बता सकता। आज जब देश की राजधानी में पत्थरबाजी, लोगों की दुकानें जलाने, किसी निहत्थे के सिर में ड्रिलिंग मशीन चलाने, पुलिस कर्मी पर बंदूक तानने या फिर सुरक्षा बलों पर तेजाब डालने की खबरें आती हैं तो यह सतही प्रश्न नहीं होने चाहिए कि घरों में तेज़ाब कहाँ से आया बल्कि यह सोचना चाहिए कि लोगों के दिलों में इतना तेज़ाब कहाँ से आया? यह नहीं खोजना चाहिए कि इतने पत्थर कैसे इकट्ठे हुए बल्कि यह उत्तर ढूंढ़ना चाहिए कि लोगों के दिलों में नफ़रत के यह पत्थर कैसे इकट्ठा हुए? यह खोखला तर्क नहीं होना चाहिए कि हमलावर बाहर से आए थे बल्कि इस तथ्य का उत्तर होना चाहिए कि उन्हें स्थानीय संरक्षण किसने दिया? राजनीति इस पर नहीं होनी चाहिए कि मरने वाले का नाम क्या था मंथन इस पर होना चाहिए कि मरने मारने की नौबत क्यों आई?

सवाल तो बहुत हैं और सभी से हैं। शुरू से शुरू करें तो बात शुरू हुई थी नागरिकता कानून से, नहीं बल्कि शायद बात शुरू हुईं थी तीन तलाक, धारा 370 और फिर राम मंदिर के फैसलों से। क्योंकि सीएए के विरोध प्रदर्शन में शामिल मुस्लिम महिलाएं और पुरूष ही नहीं खुद अनेक मौलाना भी टीवी डिबेट में यह कहते सुने गए कि हम तीन तलाक पर चुप रहे, 370 पर शांत रहे, राम मंदिर का फैसला भी सहन कर लिया लेकिन अब सीएए पर शांत नहीं रहेंगे। पर जब उनसे देश के मुसलमानों को सीएए से होने वाले नुकसान के बारे में पूछा जाता तो वे एनआरसी की बात करते। जब इनसे कहा जाता कि अभी एनआरसी आया ही नहीं है तो यह मोदी और अमित शाह पर अविश्वास की बात कहते। यह बात सही है और किसी से छिपी नहीं है कि देश का मुसलमान भाजपा पर भरोसा नहीं करता। हालांकि 2014 में “सबका साथ सबका विकास” का नारा देने वाली भाजपा ने जब 2019 में पहले से अधिक बहुमत से सत्ता में वापसी की तो उसने “सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास” का नारा दिया। अर्थात् भाजपा को भी पता था कि उसे देश के मुसलमानों का भरोसा प्राप्त नहीं है। उसे यह भी पता था कि उसकी इस कमजोरी का फायदा विपक्ष भरपूर उठता है चाहे वो कांग्रेस हो, आप हो या फिर खुद मुस्लिम नेता। ऐसी स्थिति में भाजपा ने नागरिकता कानून लाकर सेल्फ गोल किया और विपक्ष ने इस मौके को दोनों हाथों से लपक लिया। क्योंकि जब नागरिकता कानून से देश के किसी मुसलमान नागरिक का कोई लेना देना ही नहीं है तो वह भयभीत क्यों है। जवाब सभी जानते हैं, उन्हें भ्रमित किया गया है।

सवाल यह कि है जब देश के प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, कानून मंत्री, अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री जैसे सरकार में शामिल जिम्मेदार लोग विभिन्न मंचों से बार-बार कह चुके हैं कि देश के मुसलमानों से इस कानून का कोई लेना-देना नहीं है फिर भी वे उन पर भरोसा नहीं करके विपक्ष के नेता, कुछ सोशल एक्टिविस्ट या फ़िल्म मेकर जैसे सरकार से बाहर के व्यक्तियों पर भरोसा क्यों कर रहे हैं? क्योंकि यह बेहद कड़वी सच्चाई है कि आज भी देश के मुसलमान को किसी भी बात पर बहुत आसानी से बरगलाया जा सकता है। लेकिन अगर सरकार चाहती तो इस स्थिति से देश में ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी किरकिरी होने से बच सकती थी। जब सीएए देश के नागरिकों के लिए नहीं बल्कि शरणार्थियों के लिए बनाया गया था तो इस कानून को शरणार्थी नागरिकता के अंतर्गत लाकर इसका नाम शरणार्थी नागरिकता कानून रखना चाहिए था जिससे भ्रम की कोई स्थिति पैदा ही नहीं होती। लेकिन सरकार की अदूरदर्शिता से विपक्ष ही नहीं वामपंथी बुद्धिजीवियों को भी सरकार की गलत छवि बनाने की मुहिम चलाने का अवसर मिल गया। शाहीन बाग़ जैसे मंचों पर जिस प्रकार कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता हों या ओवैसी या वारिस पठान जैसे मुस्लिम नेता हों या स्वरा भास्कर, अनुराग कश्यप जैसे फिल्मकार हों या कन्हैया कुमार जैसे छात्र नेता हों दिल्ली दंगों में इन लोगों की हेट स्पीच के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। इसी तरह लगभग दो माह से कभी जेएनयू तो कभी जामिया मिल्लिया में होने वाले हिंसक प्रदर्शनों के बावजूद दिल्ली प्रशासन और पुलिस का ढुलमुल रवैया भी इन दंगों को भड़कने देने में सुप्त कारक रहा। लगभग दो माह से देश में व्याप्त इस असंतोष पर सरकार की चुप्पी भले ही राजनैतिक थी लेकिन अब जब स्थिति हाथ से निकलने लगी तो दिल्ली सरकार केंद्र सरकार पर केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट पर और सुप्रीम कोर्ट पुलिस प्रशासन पर जवाबदेही सरका रहे हैं।