– रूसी लेखक मक्सिम गोर्की के उपन्यास “मां”जैसी कहानी
– फेक्ट्री मजदूर बनकर घर का चलाया खर्चा!
अब हैं देश के हैं जाने माने प्रतिष्ठित पत्रकार

अलवर निवासी वरिष्ठ पत्रकार श्री बलवंत तक्षक से 80-81के दौरान मुलाकात होती हैं तब ये साहित्यिक गतिविधियों के अलावा एमआई स्थित भारत एल्मस में काम करते थे । अक्सर रात की ड्यूटी रहती । दिन में नींद पूरी करते लेकिन इसके बावजूद “पलाश” और खैरथल प्रहरी साप्ताहिक अखबार के लिए सम्पदक प्रहलाद मंगलानी जी से मेटर समन्धित चर्चा करते । फिर वरिष्ठ पत्रकार श्री ईशमधु तलवार के घर पर जाकर ये तीनो समाचार सामग्री को अंतिम रूप देते । फिर रात को फेक्ट्री जाते । इस तरह बलवंत जी की दिनचर्या थी ।

मेरा अलवर में रात को रुकने का ठिकाना नही था । मैं पड़ोस के गांव बहाला से आता था, जब रात हो जाती तो इनके अंडर ग्राउंड में सोते । इनके छोटे भी पुष्पेन्द्र (गुड़ु) भी वही सोता । चपाती अधिकांश दूध के साथ खानी पड़ती । तब इनकी अपनी भेंसे थी । इस तरह इनके साथ आत्मीयता रही जो अब तक जारी है । पहले ये बलवंत चौधरी के नाम से लिखते थे बाद में इन्होंने अपना गोत्र तक्षकं लगाया , उसके बाद इनकी तकदीर भी बदली । सहकार आन्दोलन से जुड़े अलवर के महेंद्र शात्री भी इनके गोती भाई है । हमारे पुराने साथी श्री देवेंद्र भारद्वाज तो आज भी इन्हें चौधरी के नाम से बुलाते हैं । बलवंत जी सहनशील , विनम्र, अपनापन के धनी है । अपने सहयोगी को कभी बोरियत महसूस नही होने देते ।
खैर, इन बातों को छोड़िए अब प्रस्तुत है बलवंत जी की कहानी उनकी जुबानी ।।बलवंत जी ने मुझे कतर ब्यौत का पूरा अधिकार दिया ये उनका बडप्पन ही है । मैं उनकी इस उदारता को दिल से सलाम करता हू । इनकी कहानी जस की तस प्रस्तुत कर रहा हूं ।

– बलवंत जी की जुबान

” मेरे दोस्त हरप्रकाश मुंजाल ने कहा है कि अपने बारे में कुछ लिखो। लिख तो रहा हूं, लेकिन क्या लिखूं? जिंदगी में ऐसा कुछ है नहीं, जिसका जिक्र किया जाये। जिक्र करूं भी तो इससे किसी का क्या लेना-देना, जो इसे पढ़ने की जहमत उठाये? फिर भी लिखना है तो लिख रहा हूं…. .

कुछ मालूम नहीं था, जिंदगी कहां ले जाएगी? बहुत से लोग प्लानिंग बनाते हैं और सफल भी होते हैं, लेकिन मैं तो उन लोगों में से था, बचपन में, एक सड़क दुर्घटना में पिता जी के निधन के बाद मुझे पता ही नहीं था कि अब करना क्या है? कौन मदद करेगा? जिंदगी कैसे चलेगी? रोजी-रोटी का जुगाड़ कैसे होगा? दसवीं क्लास में पढाई के दौरान शादी हो गई। क्या किया जाये, इसी उधेड़बुन में मत्स्य इंडस्ट्रियल एरिया में एक तेजाब बनाने वाली फैक्ट्री में मजदूर हो गए। शुरु में बड़े-बड़े ग्लब्ज और घुटनों तक के जूते पहन कर ट्रॉली में तेजाब से भीगी मिट्टी ढोने का काम मिला। फिर तेजाब के बड़े-बड़े टैंकों के लेवल नापे। शिफ्ट इंचार्ज भी हो गए। लिखने-पढ़ने का शौक था, इसलिए रात की शिफ्ट में कुछ कथा-कहानियां लिख लेते थे।

कभी-कभी लगता था कि क्या सारी उम्र ऊंची-ऊंची दीवारों वाली इसी फैक्ट्री में बीत जाएगी? क्या कभी तेज़ाब की गंध से निजात मिल पाएगी? क्या मेरे भी कभी दिन फिरेंगे? क्या कभी चैन की नींद सो पाऊंगा? आखिर कैसे बदलेंगे मेरे हालात? खुद से सवाल तो पूछता था, लेकिन कोई जवाब नहीं मिलता था। शौक पूरा करने के लिए बच्चों की कहानियां लिखता और लैटर बॉक्स में डाल आता। फिर रविवार का इंतजार करता। साइकिल उठाता और न्यूज़ पेपर एजेंट से ‘अरानाद’ मांगता। अपनी कहानी छपी देख कर उत्साह बढ़ जाता। फिर एक कहानी लिखता और पोस्ट कर देता। मेरी लिखी बच्चों की कहानियां अखबार में छप रही हैं, फैक्ट्री में सल्फर की गंध के बीच काम करते हुए स्थानीय अखबार में कहानी का छपना ही तब मेरे लिए सब से बड़ी ख़ुशी की बात थी।

उस समय मैं कभी अखबार के दफ्तर में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। कभी सपने में भी खयाल नहीं आया कि जिंदगी अखबार के दफ्तर में काम करते हुए ही गुजरेगी? होता वही है, जो लिखा होता है। मेरे लिए यह मुश्किल दौर था। शायद कुछ बेहतरी के लिए ही ऊपर वाले ने मुझे ईशमधु तलवार से मिलवाया, जो अलवर की पत्रकारिता में एक जाना-माना नाम था। तलवार जी से जान-पहचान हुई। इसी दौरान उन्होंने एक साहित्यिक संस्था ‘पलाश’ का गठन किया और मुझे भी अपने साथ जोड़ लिया। इस संस्था के लिए काम करते हुए जब 1981 में अलवर से ‘अरूणप्रभा’ की शुरुआत हुई तो तलवार जी ने मुझे भी रिपोर्टर बना दिया। फैक्ट्री की नौकरी छूट गई। रोजाना नए-नए लोगों से संपर्क होने लगा। लगा कि यही वह काम है, जो मैं मन लगा कर कर सकता हू

इसी दौरान अखबार के मालिक सुशील झालानी, उनके दोनों छोटे भाइयों अरुण झालानी और अतुल झालानी से प्रोत्साहन मिला। अखबार में काम करते हुए ही जगदीश शर्मा जी देवेंद्र भारद्वाज, कपिल भट्ट, हरप्रकाश मुंजाल, गोपीचंद वर्मा, चंद्रशेखर आज़ाद, मोहन बेनीवाल से दोस्ती हुई। महेश झालानी और प्रह्लाद मंगलानी का भरपूर सहयोग मिला। जुगमंदिर तायल, सुरेश पंडित, भागीरथ भार्गव, अशोक शुक्ल, डॉ. जीवन सिंह मानवी, मोहन श्रोत्रिय, डॉ. जय सिंह नीरज, डॉ. शिब्बन कृष्ण रैना, रेवती रमण शर्मा, देवदीप, नीलाभ पंडित, प्यारे सिंह जैसे साहित्यकारों के साथ उठने-बैठने का मौका मिला। होप सर्कस उस समय बातचीत का मुख्य अड्डा होता था। जयपुर चले गए उस समय के बड़े पत्रकार अशोक शास्त्री, जगदीश शर्मा, अभय बाजपेयी से भी मिलने-जुलने की राह बन गई। शहर के अन्य पत्रकारों ओमप्रकाश गुप्ता जी, अनिल कौशिक, हरीश जैन, हरिओम शर्मा, राजेश रवि, प्रमोद मलिक, जिनेश जैन से भी दोस्ती हो गई।

एक समय ऐसा भी आया, जब ‘अरूणप्रभा’ के संपादक ईशमधु तलवार और उनके बहुत से दोस्त जयपुर से प्रकाशित होने वाले ‘नवभारत टाइम्स’ में चले गए। ‘अरूणप्रभा’ के प्रकाशक सुशील झालानी का शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने मुझ पर भरोसा करते हुए संपादक की जिम्मेदारी दे दी। इसी दौरान महेश झालानी की मेहरबानी हुई कि ‘जनसत्ता’ की स्ट्रिंगरशिप दिलवा दी। मुझे जयपुर में ‘जनसत्ता’ के स्टेट इंचार्ज रियाजुद्दीन शेख से मिलवाया और उनसे मेरे लिए हरिशंकर व्यास जी के नाम चिट्ठी लिख कर उनसे मिलने दिल्ली भिजवाया। इसके बाद अलवर से ‘जनसत्ता’ के लिए काम करने की मेरी राह आसान हो गई।

मैं खुद को सौभाग्यशाली मानता हूं कि मेरे साथ अशोक राही, रामानंद राठी, सुनील बिज्जू, सुशील मम, प्रह्लाद पुष्पद, लक्ष्मी नारायण लक्ष्य और योगेंद्र योगी जैसे अच्छे लोग जुड़े, जिनकी बदौलत मुझे अखबार के लिए न केवल बेहतरीन ख़बरें मिलती रहीं, बल्कि कॉलम भी नियमित रूप से लिखे जाते रहे। मैं इन सब लोगों का तब भी दिल से आभारी था और आज भी हूं। चंडीगढ़ में होने की वजह से भले ही मिलना-जुलना कम हो पाता है, लेकिन समय के साथ इन सब के लिए मेरे मन में सम्मान लगातार बढ़ा है।
यह ऐसा समय था, जब लोग राष्ट्रीय स्तर का अखबार पढ़ना हो तो दैनिक ‘हिंदुस्तान’ खरीदते थे, राज्य स्तरीय अख़बार पढ़ना हो तो ‘राजस्थान पत्रिका’ लेते थे, लेकिन स्थानीय ख़बरों के लिए साथ में ‘अरूणप्रभा’ भी जरूर खरीदते थे। मुझे याद है, ‘अरूणप्रभा’ में हमने शिवाजी पार्क कॉलोनी में ‘मकानों के गायब होने का फर्जीवाड़ा’ और घटिया निर्माण की वजह से पहली ही बरसात में मकानों के ढह जाने की धारावाहिक ख़बरें छाप कर लोगों का विश्वास जीत लिया था। यूआईटी ने मकानों के नंबर इस तरह से लिखे थे कि कागजों में जितने मकान बनाये बताये गए थे, संख्या में उतने नहीं थे। मतलब, इन मकानों के निर्माण पर दिखाया गया खर्च शायद अफसरों की जेब में चला गया था। इस मौके पर एक बार फिर अखबार के प्रकाशक सुशील झालानी की तारीफ़ करना चाहूंगा कि उन्होंने मुझे कभी किसी खबर को छापने से नहीं रोका।

एक बार ऐसा भी समय आया कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में दंगे हो गए और दिल्ली के अखबार अलवर नहीं पहुंच सके। ‘अरूणप्रभा’ उस दिन जितना छपा था, बिक गया, पर लोग और बहुत कुछ जानना चाहते थे। ऐसे में लोगों की जिज्ञासा शांत करने का एक ही तरीका था कि एक बार फिर से नई ख़बरों के साथ दिन में ही एक और अंक छाप दिया जाए। बिना देर किये, नया अंक छपा और हाथों-हाथ सारी की सारी प्रतियां बिक भी गईं।

इस मौके पर मैं अगर अपने दोस्त वीरेंद्र चंद्रावत उर्फ़ बिल्लू को याद ना करूं तो खुद को नाशुक्रों की कतार में खड़ा पाऊंगा। बिल्लू बिना किसी स्वार्थ के रोजाना ‘अरूणप्रभा’ दफ्तर आते थे। उन्होंने ही मुझे बताया कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी अपने मंत्रिमंडल के बहुत से सदस्यों के साथ सरिस्का आ रहे हैं। इस बारे में तब के जिला कलेक्टर सुनील अरोड़ा जी से बात की गई तो उन्होंने स्वीकार किया कि प्रधानमंत्री का सरिस्का आने का कार्यक्रम पक्का हो चुका है। तब तक अखबार बन चुका था। फर्मे खोले गए। खबर लिखी गई और इसे आठ कॉलम में बैनर न्यूज़ के तौर पर छापा गया। खबर हिट हो गई। अगले दिन से देश के सभी अख़बारों में प्रधानमंत्री के अलवर दौरे की ख़बरें प्रमुखता से प्रकाशित होने लगीं और पत्रकार बिरादरी में अपनी भी कुछ इज्जत बढ़ गई।

सब ठीक चल रहा था। जिंदगी में ठहराव-सा आ गया था। पैसा तो ज्यादा नहीं था, लेकिन मन में सतोष जरूर था कि जितना है, पर्याप्त है। फिर ऐसा हो गया, जिसके बारे में कभी कल्पना भी नहीं थी। किस्मत में लिखा था कि चंडीगढ़ में पत्रकारिता करनी है। अलवर में बंधुआ मजदूरों की मुक्ति के बाद उन्हें थानागाजी तहसील के एक गांव में बसाने को लेकर पर्यावरण संरक्षकों, ग्रामीणों और जिला प्रशासन की बीच विवाद पैदा हो गया। इसी विवाद के निपटारे के लिए ‘जनसत्ता’ के संपादक प्रभाष जोशी थानागाजी आये और उनकी मध्यस्थता की वजह से यह विवाद सुलझ गया। तब उनके साथ जाने-माने पर्यावरणविद अनुपम मिश्र भी आये थे। अगले दिन सुबह इस विवाद को सुलझाने संबधी एक खबर मैंने ‘अरूणप्रभा’ में लिखी और प्रभाष जी को इसकी एक कॉपी दी। खबर पढ़ने के बाद उन्होंने मुझ से पूछा कि अगर ‘जनसत्ता’ में काम करने के इच्छुक हो तो दिल्ली आ जाना।
क्या ‘जनसत्ता’ में काम करने का मौका कोई चूकना चाहेगा? उस समय हिंदी में ‘जनसत्ता’ देश का सिरमौर अखबार माना जाता था। इस अखबार में काम करना ज्यादातर पत्रकारों का सपना होता था। मैं खुद को खुशकिस्मत मानता हूं कि मुझे भी यहां काम करने का अवसर मिला। चंडीगढ़ संस्करण के संपादक ओम थानवी जी ने खुल कर काम करने की छूट दी। ज्वाइन करने के कुछ ही दिन बाद मेरी ड्यूटी तब के मुख्यमंत्री चौधरी देवीलाल के साथ लगा दी गई। वर्ष 1989 के लोकसभा चुनावों में प्रचार के दौरान उत्तर भारत के कई राज्यों में मैं उनके साथ रहा।

देवीलाल जी ने तब कहा था कि अगर जनता दल सत्ता में आया तो विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री बनवाएंगे। मैं उस समय का साक्षी हूं, जब दिल्ली में हुई बैठक में सांसदों ने देवीलाल जी को अपना नेता चुन लिया था। दिल्ली स्थित हरियाणा भवन में तब अखबारों को जारी करने के लिए देवीलाल का बायो डाटा भी तैयार कर लिया गया था। देवीलाल जी चाहते तो प्रधानमंत्री बन सकते थे, लेकिन उन्होंने अपना सेहरा उतार कर विश्वनाथ प्रताप सिंह के सिर पर सजा दिया। हरियाणा में ‘ताऊ’ के नाम से मशहूर देवीलाल जी उस दिन सही मायने में ‘जगत ताऊ’ हो गए थे। मेरी एक और खबर का हैडिंग था, ‘ताऊ पूरा तोलेगा, लाल किले से बोलेगा’ यह मुझे आज तक याद है। इस खबर को हरियाणा के लोगों ने तब बड़ा पसंद किया था।
उस समय चौधरी देवीलाल की लोकप्रियता चरम पर थी। उप प्रधानमंत्री बन कर वे केंद्र में चले गए और हरियाणा की बागडोर उनके बड़े बेटे चौधरी ओमप्रकाश चौटाला के हाथ में आ गई। चौटाला को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद छह महीने के भीतर विधायक बनना था। उन्होने महम क्षेत्र से उप चुनाव लड़ने का फैसला किया, लेकिन देखते ही देखते हालात ऐसे बन गए कि न केवल चौटाला का विरोध शुरु हो गया, बल्कि लोगों ने महम दौरे पर आये उप प्रधानमंत्री देवीलाल जी को भी काले झंडे दिखने से गुरेज नहीं किया। उप चुनाव में भारी हिंसा हुई और चुनाव रद्द हो गया। इसी उप चुनाव की वजह से प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह और उप प्रधानमंत्री देवीलाल के संबंध बिगड़ गए। देवीलाल जी ने तब कहा कि वे वीपी (विश्वनाथ प्रताप) की पीपी बना देंगे, परिणाम यह रहा कि आधी रात के समय देवीलाल केंद्रीय मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिए गए। चौटाला को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ गया। इस सब बातों का जिक्र इसलिए कर रहा हु कि मैंने तब रोहतक में रहते हुए महम उप चुनाव कवर किया था।

चौधरी देवीलाल के अलावा चौधरी भजन लाल, चौधरी बंसी लाल, चौधरी ओमप्रकाश चौटाला, चौधरी भूपेंद्र सिंह हुड्डा, बनारसी दस गुप्ता और मास्टर हुकम सिंह को हरियाणा का राजकाज चलाते न केवल निकट से देखा, बल्कि उनके साथ उठने-बैठने और उन्हें नजदीक से जानने का भी मौका मिला। अब मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर और देवीलाल के पड़पौते उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला को राज चलाते देख रहे हैं। चौधरी भजन लाल ने तब अपने ऐच्छिक कोटे से अपने जमाने की मशहूर अभिनेत्री माधुरी दीक्षित को पंचकूला में प्लॉट दिया था। यह खबर मैंने जब ‘जनसत्ता’ में छापी तो पाकिस्तान के फ़िल्मी कलाकारों ने भी अपनी सरकार से इसी तर्ज पर उन्हें प्लॉट दिए जाने की मांग की थी। ढाई लाख रुपए में दो किस्तों में ख़रीदा यह प्लाट माधुरी दीक्षित कुछ अर्से पहले ही सवा तीन करोड़ रुपए में बेच गई हैं।
ऐच्छिक कोटे से तब मुख्यमंत्री रहते चौधरी भजन लाल ने केंद्रीय मंत्रियों, राज्यपालों, राज्य के मंत्रियों, आईएएस व आईपीएस अफसरों, पत्रकारों और अपने समर्थकों को करीब पांच हजार प्लॉट बांटे थे। यह प्लॉट कायदे से जरूरतमंद लोगों को दिए जाने थे, लेकिन मिले प्रभावशाली लोगों को। इस पर मैंने तीन किस्तों में स्टोरी लिखी, जो ‘जनसत्ता’ के साथ-साथ मेरे नाम से ‘इंडियन एक्सप्रैस’ में भी पहली खबर के तौर पर छपी। मामला पंजाब एंड हरियाणा हाई कोर्ट से होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में ऐच्छिक कोटे के प्लॉट रद्द कर दिए। मेरी खबर पर एक तरह से यह सुप्रीम कोर्ट की मोहर थी कि ऐच्छिक कोटे के प्लॉट आवंटन में बड़े पैमाने पर बंदरबाट हुई है।

इसी तरह 1996 में विधानसभा चुनावों से दो दिन पहले ‘जनसत्ता’ में पहले पेज पर थानवी साहब के साथ मेरी जो बाइलाइन खबर छपी थी, ‘भजन लाल का सिंहासन डांवाडोल, हविपा-भाजपा सत्ता की ओर’ बड़ी चर्चा में रही थी। इस खबर से न केवल भजन लाल ने गुस्से में मुझे प्रेस कॉंफ्रेंस से बाहर निकाल दिया था, बल्कि चौधरी ओमप्रकाश चौटाला भी नाराज हो गए। चौटाला साहब और उनके समर्थक आज तक यह मानते हैं कि अगर यह खबर नहीं छपी होती तो उनकी इंडियन नेशनल लोकदल पार्टी के विधायकों की तादाद चौधरी बंसीलाल की हरियाणा विकास पार्टी से ज्यादा होती और वे सत्ता में होते।
चौधरी भजन लाल कितने उदार थे, इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि ‘जनसत्ता’ से लगातार नाराज रहते हुए भी उन्होंने 1994 में मुझे 15 हजार रुपए का ‘हरियाणा का श्रेष्ठ पत्रकार’ का पहला पुरस्कार दिया। हरियाणा की पत्रकारिता में भीष्म पितामह माने गए बाबू बालमुकंद गुप्त सम्मान और पत्रकारिता की गरिमा के लिए लड़ते हुए गोली के शिकार हुए पत्रकार छत्रपति की याद में शुरु किये गए ‘छत्रपति अवार्ड’ से भी मुझे सम्मानित होने का मौका मिला है। चंडीगढ़ में ‘जनसत्ता’ से रिपोर्टर के तौर पर शुरु किया सफर दैनिक भास्कर में पंजाब-हरियाणा के ब्यूरो चीफ से होते हुए ‘इंडिया न्यूज़, हरियाणा’ टीवी और दैनिक ‘आज समाज’ में सीनियर एसोसिएट एडिटर के बाद ‘ई-टीवी’ में हरियाणा-हिमाचल के संपादक तक पहुंच गया। भले ही उम्र साठ से ज्यादा हो गई है, लेकिन अभी भी ‘पंजाब केसरी’ टीवी में बतौर हरियाणा इंचार्ज उसी उत्साह के साथ पत्रकारिता जारी है।

संयोग देखिए कि ‘अरूणप्रभा’ के बाद चंडीगढ़ में ‘जनसत्ता’ में रहते एक बार फिर तलवार साहब के साथ काम करने का अवसर बना। जयपुर में ‘नवभारत टाइम्स’ बंद हो गया और तलवार जी बतौर ब्यूरो चीफ चंडीगढ़ आ गए। चंडीगढ़ में दैनिक भास्कर में रहते अलवर के साथी प्रमोद वशिष्ठ के साथ कई साल काम किया। वरिष्ठ पत्रकार जगदीश शर्मा और राजेश रवि भी अलग-अलग समय में भास्कर में काम करने के दौरान कुछ दिनों के लिए जब चंडीगढ़ आये थे तो उनके सानिध्य में भी वक्त बिताने का सुख मिला। अलवर के ही साथी तरुण रावल ‘अमर उजाला’ और जिनेश जैन न्यूज़ एजेंसी ‘यूनीवार्ता’ में चंडीगढ़ में काम कर चुके हैं। उनके साथ बिताया समय मुझे हमेशा याद रहेगा। इस समय मेरा बड़ा बेटा अभिषेक तक्षक ‘ई-टीवी, भारत’ में सीनियर रिपोर्टर और उसकी पत्नी शालू शर्मा हरियाणा सरकार में लोक संपर्क अधिकारी के तौर पर काम करते हुए मेरे साथ हैं, जबकि छोटा बेटा अभिनव तक्षक नारनौल में सरकारी नौकरी में है।
चंडीगढ़ बहुत खूबसूरत शहर है, यह तो सभी को मालूम है, लेकिन साथ ही यह बताना भी जरूरी है कि यहां का चंडीगढ़ प्रेस क्लब देश का सबसे बेहतरीन प्रेस क्लब है। चंडीगढ़ के अलावा पंजाब, हरियाणा और हिमाचल कवर करने वाले पत्रकार इसके सदस्य हैं। पत्रकारों के बीच अपनी स्थिति का पता लगाने के लिए एक बार मैंने भी डरते-डरते संयुक्त सचिव के पद पर चुनाव लड़ लिया और जीत भी गया। इससे हिम्मत बढ़ी तो अगले साल फिर एक पायदान ऊपर सचिव पद के लिए फार्म भर दिया। जीत गए तो अगले साल उपाध्यक्ष के पद पर लड़े और बने भी। जब कोई व्यक्ति लगातार जीत रहा हो तो जाहिर है कि वह हमेशा ही अगली सीढ़ी चढ़ना चाहेगा। चौथे साल मैं सेक्रेटरी जनरल के लिए मैदान में उतर गया और लोगों ने फिर से विजयी बना दिया।

मुझे अब प्रेस क्लब में केवल एक सीढ़ी और चढ़नी थी। ऐसा कुछ् आभास हो गया था कि मैं अध्यक्ष बन सकता हूं। मजे की बात यह रही कि फ़ार्म भरा तो मेरे मुकाबले के लिए किसी ने पर्चा ही दाखिल नहीं किया। निर्विरोध ही जीत हो गई। अगले साल मुझे फिर से निर्विरोध चुन लिया गया। चंडीगढ़ प्रेस क्लब के इतिहास में किसी हिंदी अखबार से मैं पहला अध्यक्ष था। इससे पहले जितने भी अध्यक्ष रहे, वे या तो पंजाबी अख़बारों से थे या फिर अंग्रेजी अख़बारों से। जब मुझे अध्यक्ष चुना गया, तब इस क्लब में राजस्थान से मैं अकेला सदस्य था।

प्रेस क्लब के लिए अपने दो साल के कार्यकाल में मैंने पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और हिमाचल के मुख्यमंत्रियों से एक करोड़ साठ लाख रुपए का फंड इकठ्ठा किया, जो आज भी एक रिकॉर्ड है। क्लब की यह परम्परा है कि जब लगातार दो साल तक कोई किसी पद पर रह ले तो आगे एक साल तक उस पद के लिए चुनाव नहीं लड़ सकता। चूंकि, मैं लगभग सभी पदों पर रह लिया था, इसलिए यही तय किया कि भविष्य में कभी प्रेस क्लब का चुनाव नहीं लड़ना है। इतना जरूर है कि अगर क्लब के पदाधिकारी कोई ड्यूटी लगा दें तो अपनी तरफ से जो बेहतर हो सके, करने के प्रयास करता हूं।

मेरे अध्यक्षीय कार्यकाल में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती, फिल्म अभिनेत्री हेमामालिनी, अभिनेता विनोद खन्ना, जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद, मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री उमा भारती, भाजपा की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते नितिन गडकरी सहित पंजाब, हरियाणा और हिमाचल के कई मुख्यमंत्रियों और बहुत से कैबिनेट मंत्रियों और पार्टी नेताओं ने प्रेस क्लब के ‘मीट द प्रेस’ कार्यक्रम में हिस्सा लिया। क्लब के पास करीब दो एकड़ जमीन है। पहले से मिली जमीन के अलावा अतिरिक्त जमीन उपलब्ध कराने के लिए क्लब के सभी सदस्य पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चंद्रशेखर के हमेशा आभारी रहेंगे। प्रेस क्लब बनाने का विचार यहां के पत्रकारों के दिमाग में तब आया था, जब आपातकाल का दौर था और काम के लिहाज से वे एक तरह से ठाली थे।

पत्रकारिता के लिए, या यों कहें कि रोजी-रोटी के लिए अब भी चंडीगढ़ में काम कर रहा हूं, लेकिन यकीन मानिये,मन अलवर में ही बसता है। यहां मेरा पैतृक मकान व तुलेड़ा गांव में कृषि भूमि हैं । दोनो छोटे भाई सुधीर तक्षक और पुष्पेंद्र तक्षक अलवर ही रहते हैं ।इकत्तीस साल चंडीगढ़ में बिताने के बावजूद अलवर को, अपने दोस्तों को नहीं भूल पाया हूं। किशोर अवस्था में एक बार जब घूमने के लिए चंडीगढ़ आने का मौका मिला था, तब चंडीगढ़ को देख कर लगा था कि क्या कोई शहर इतना भी खूबसूरत हो सकता है? क्या पता था कि सारी उम्र इसी खूबसूरत शहर में ही बितानी पडेगी ।

मुंजाल साहब, आपके आग्रह पर लिख तो दिया है, लेकिन इसमें कांटने-छांटने के सारे अधिकार आपके पास हैं। जैसे चाहो, इस्तेमाल करो। अलवर के सभी दोस्तों को नमस्कार। “( बलवंत जी आप स्वस्थ और दीर्घायु रहे ।साथ मे मस्तमौला बना रहे । इसी कामना के साथ ।)

प्रस्तुतकर्ता : हरप्रकाश मुंजाल , अलवर ।