सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला वरिष्ठ बैंक अधिकारियों को बहु प्रतीक्षित राहत प्रदान करता है, ये अधिकारी हमेशा इस आशंका के साये में जीते थे कि उन्होंने जिन कंपनियों को ऋण दिया है, यदि वे जांच के दायरे में आती हैं तो उनके खिलाफ भी कार्रवाई हो सकती है। कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 339 में उन लोगों को व्यक्तिगत रूप से जवाबदेह ठहराने की बात शामिल है जो किसी कंपनी के कारोबार को चलाने के भागीदार थे और जिनके बारे में ऐसा पता चलता है कि उन्होंने बिना किसी जवाबदेही के कंपनी के ऋणदाताओं को ठगा तो उन पर कार्रवाई की जा सकती है। यह बात कंपनी के तमाम ऋण और देनदारियों पर लागू होती है। इस शक्ति के विरुद्घ जांच परख की व्यवस्था यह है कि इससे जुड़ा निर्णय केवल राष्ट्रीय कंपनी लॉ पंचाट ही ले सकता है। यदि इस अधिकार का इस्तेमाल किया जाता है और पंचाट यह घोषणा करता है कि किसी व्यक्ति को इस प्रावधान के अधीन लाया जाए तो जवाबदेही तय करने के लिए जरूरी निर्देश जारी किए जा सकते हैं।

नीरव मोदी के मामले में इस अधिकार का इस्तेमाल ऋणदाताओं से संबंधित प्रक्रियाओं में किया गया, यानी नीरव मोदी द्वारा प्रवर्तित कंपनी, न कि बैंक से संबंधित प्रक्रियाएं। कंपनी मामलों के मंत्रालय ने जनहित में दमन और कुप्रबंधन का मामला उठाया और उन प्रक्रियाओं के दौरान पंजाब नैशनल बैंक के चेयरमैन (एक वर्ष नौ माह तक चेयरमैन रहे) की परिसंपत्तियां कुर्क कर ली गईं। राष्ट्रीय कंपनी लॉ अपील पंचाट भी इस बात पर सहमत हो गया कि बैंक के चेयरमैन की परिसंपत्तियों को ऐसे अधिकार का प्रयोग करके कुर्क किया जा सकता है। वह केवल अपनी आजीविका के लिए प्रतिमाह एक लाख रुपये तक निकाल सकते थे। इसका आधार यह था कि केंद्रीय जांच ब्यूरो ने बैंक अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करते समय चेयरमैन को आरोपित बनाया था और कहा था कि उन्होंने उचित सतर्कता नहीं बरती।


सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि धारा 339 की व्यापक शक्तियों और उसके दायरे का लक्ष्य है उस कंपनी के हितों का बचाव करना जहां कुप्रबंधन हुआ हो। जिस कारोबार के आचरण का उल्लेख किया गया है वह संबंधित कंपनी का कारोबार है न कि अन्य कंपनियों और व्यक्तियों का। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा था, ‘यह स्पष्ट है कि इन धाराओं के अधीन आने वाली शक्तियों का पालन ऐसे आदेश में नहीं हो सकता जहां कोई ऐसा व्यक्ति शामिल हो जो अन्य संस्थानों का भी प्रमुख हो और वह या उसकी संपत्ति कुर्क की गई हो।’

कर्जदार की ओर से धोखाधड़ी के मामलों में बैंक अधिकारियों को घसीटे जाने के कारण बैंक अधिकारी ऋण संबंधी निर्णय लेने से बचते हैं। बैंक अधिकारियों के मन में समाया डर ऋण विस्तार में कमी के लिए किस हद तक जिम्मेदार है इस बारे में ठीक-ठीक तो कुछ नहीं कहा जा सकता है लेकिन सच यही है कि बैंक अधिकारी इस बात को लेकर घबराते हैं कि कहीं आधी रात को जांच अधिकारी उनके दरवाजे पर दस्तक न दे दें। उनके द्वारा सद्भावना में दिए गए ऋण के मामले कहीं धोखाधड़ी न साबित हों। कंपनी अधिनियम की धारा 339 की शक्तियों का प्रयोग एक नई विशेषता थी जिसने बैंक अधिकारियों के बीच भय और आशंका बढ़ाने का काम किया। हम जिस मामले की बात कर रहे हैं उसमें शामिल व्यक्ति करीब दो वर्ष तक बैंक का चेयरमैन था।


सीबीआई यह जांच कर सकती है कि मामले में कोई आपराधिक पहलू था या नहीं और क्या अंतत: उसे आपराधिक जांच प्रक्रिया में सबूतों से जूझना होगा। बहरहाल, आततायी और पीडि़त की भूमिका को आपस में बदला नहीं जा सकता है। जब कोई कर्जदार कंपनी बैंक के साथ धोखाधड़ी करती है तो बहुत संभव है कि कंपनी का भी कुप्रबंधन हो। बैंक धोखाधड़ी के मामले में कर्जदार अपराधी है और बैंक पीडि़त। कंपनी के कुप्रबंधन की स्थिति में ऐसा नहीं होगा कि बैंक अधिकारियों ने कंपनी को धोखा दे रहे हों और उन्होंने कंपनी से पैसे निकाले हों। उन प्रक्रियाओं में पीडि़त, अपराधी नहीं हो सकता।

जब धोखाधड़ी के किसी मामले का पता चलता है, वह भी किसी बड़ी धोखाधड़ी का तो ढेर सारा शोरशराबा होता है। ऐसे में कानून में उल्लिखित शब्दों की भी पर्याप्त व्याख्या होगी। सीबीआई जांच का निर्णय तो मामले की वरीयता पर निर्धारित होगा लेकिन किसी कर्जदार कंपनी में हुई गड़बड़ी के मामले में बैंक अधिकारियों को अपराधी मानना बैंक अधिकारियों के सामान्य कामकाज को प्रभावित करने के लिए काफी है। यह अच्छी बात है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में अपनी बात सामने रखी है।