कर्नाटक में अंगूर, महाराष्ट्र में केला, राजस्थान में लाल मिर्च, उत्तर प्रदेश में मेंथा और गन्ना इत्यादि फसलों को उगाया जा रहा है। इन फसलों के उत्पादन में भूमिगत जल का अति दोहन होता है। सरकार की कोशिश है यह दशा बदले | इस हेतु सरकार ने योजना बनाई है कि किसानों को समझाया जाये कि वे इस प्रकार की फसलों का उत्पादन न करें जो भूमिगत जल को स्वाहा कर दे |अगली कड़ी में भूमिगत जल का संरक्षण है, जिससे कि दीर्घकाल तक देश की खेती और किसान की आर्थिकी सुरक्षित रहे।
सरकार का सोच सही दिशा में है, परन्तु किसान माने तब | किसान को तय करना होता है कि वह आज मिर्च की खेती करके १०-१२ हजार का लाभ कमाएगा अथवा बाजरे की खेती करके २००० का। ऐसे में उससे कहना कि मिर्च उगाने से भूमिगत जल का उपयोग अधिक होगा इसलिए वह मिर्च न उगाये, सही होते हुए भी इस बात का अनुपालन कठिन होगा। किसान जल खपत करने वाली फसलें उगाते ही रहेंगे। इस समस्या का एक उपाय हो सकता है कि किसानों से भूमिगत का मूल्य वसूल किया जाये| खासकर ट्यूबवेल के माध्यम से खींचे जाने वाले पानी का । ऐसा करने से मिर्च जैसी फसलों को उपजाने की लागत बढ़ जाएगी और राजस्थान के किसान के लिए बाजरे की खेती करना लाभप्रद हो जायेगा। जैसे यदि किसान को मिर्च की खेती के लिए ८००० रुपया पानी एवं बिजली के मूल्य के लिए अदा करना हो तो किसान की लाल मिर्च की खेती करने के प्रति रुचि नहीं रह जाएगी। पानी के इस मूल्य को वसूलने से किसान की लागत बढ़ेगी और तदनुसार सरकार को प्रमुख फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में वृद्धि करनी होगी और किसान की जीविका बचेगी |
इसके साथ-साथ हमको जल की उपलब्धता भी बढ़ानी होगी, और सिंचाई के लिए छोड़े जाने वाले पानी का परिवहन ह्रास कम करना होगा । इस मुद्दे पर वर्तमान में सरकार का ध्यान बड़ी झीलें बनाने का है जैसे आंध्र प्रदेश में पोलावरम, उत्तराखंड में पंचेश्वर तथा लखवार व्यासी एवं हिमाचल प्रदेश में रेणुका आदि । इन परियोजनाओं के तहत नदियों के पानी को बांध कर विशाल तालाब बनाया जाता है, जैसा कि भाखड़ा, तुंगभद्रा एवं टिहरी बांधों में किया गया है। इन झीलों में एकत्रित जल को जाड़े और गर्मी के दिनों में छोड़ा जाता है, जिससे सिंचाई होती है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में पानी की विशाल बर्बादी होती है। यह पानी महीनों तक तालाबों में खुला पड़ा रहता है और वाष्पीकरण से इसकी मात्रा कम हो जाती है। १५ प्रतिशत पानी का तालाबों से वाष्पीकृत हो जाता है।पानी को नहर के माध्यम से भी खेत तक पहुंचाया जाता है। इस प्रक्रिया में, नदी पर बैराज बनाकर पानी को नहर में डालना और नहर से खेत तक ले जाने में लगभग १५ प्रतिशत पानी का रिसाव हो जाता है।
भूमिगत पानी को निकलने में बिजली की खपत होती है, जिससे कि देश और किसान दोनों पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है। लेकिन बिजली के उत्पादन के तमाम स्रोत हैं जैसे सौर ऊर्जा अथवा परमाणु ऊर्जा जबकि पानी के हमारे पास सीमित स्रोत हैं। पानी का संरक्षण जरूरी है। बिजली के दूसरे स्रोतों का विकास करके हम भूमिगत जल को निकालने का उपाय कर सकते हैं। लेकिन साथ-साथ सरकार को बड़ी झीलों में पानी के संग्रहण करने की नीति को त्याग कर बाढ़ की उपयोगिता को स्वीकार करना चाहिए और इन बड़ी झीलों को हटा कर मैदानी इलाकों में भूमिगत तालाबों में पानी के पुनर्भरण की ओर ध्यान देना चाहिए।