-पंच, सरपंच व पटवारी को दिया दायित्व, पालना नहीं हुई तो मिलेगा दण्ड

-इस कुप्रथा ने कई परिवार बर्बाद किये, मृत्यु भोज का प्रचलन गांवों में व्यापक स्तर पर


● तिलक माथुर -केकड़ी (राजस्थान)
समाज में परम्परागत रूप से चली आ रही मृत्युभोज जैसी कुप्रथा को बंद करने के लिए जहां कई समाज व सामाजिक संगठन आगे आ रहे हैं वहीं राज्य सरकार ने भी इस कुप्रथा को बंद करने की ठान ली है। इस संदर्भ में राजस्थान के पुलिस महानिदेशक (अपराध) जयपुर द्वारा राज्य के समस्त पुलिस उपायुक्त तथा पुलिस अधीक्षकों को एक आदेश जारी कर निर्देशित किया है कि राजस्थान मृत्युभोज निवारण अधिनियम 1960 की पालना करायी जावें तथा यह भी निर्देशित किया कि मृत्युभोज होने की सूचना न्यायालय को दी जाए। इसकी पालना को सुनिश्चित किये जाने के लिए पंच, सरपंच व पटवारी को दायित्व दिया गया है।

प्रावधान का उल्लंघन करने पर दण्ड का प्रावधान किया गया है। इस बाबत जारी पत्र में पुलिस महानिदेशक ने पुलिस अधिकारियों को उक्त अधिनियम की पालना सुनिश्चित कराने के लिए निर्देश दिए हैं। उल्लेखनीय है कि परम्परागत रूप से चली आ रही मृत्युभोज किये जाने की कुप्रथा ने कई परिवारों की आर्थिक दृष्टि से कमर तोड़ दी है। इस कुप्रथा को निभाते हुए कई गरीब लोगों के मकान, जर-जेवर, जमीन, सभी कुछ बिक जाने एवं कंगाल होने तक कि नोबत आ जाती है। इस कुप्रथा को शहरों में अधिकांश लोगों ने बंद कर दिया है मगर गांवों में अब भी अधिकांश समाजों में इस कुप्रथा का प्रचलन जारी है। हमारे धार्मिक ग्रन्थ जैसे गरुड़ पुराण, पितृ संहिता, वेदों में अनेकानेक जगह यह वर्णित है कि मृत प्राणी, दिए गए भोजन का अंश मात्र या भाव स्वरूप विद्यमान उस भोजन का भाग ग्रहण करता है। मृत्योपरांत भोजन कराना हमारे लिए धर्म ओर संस्कृति का अंग है। शास्र अपने सामर्थ्य के अनुसार ब्राह्मण एवं बहिन, बेटियों को भगवान का प्रसाद बना कर भोजन की सलाह देता है, उधार लेकर प्रदर्शन की नहीं। हिन्दू समाज में जब किसी परिवार में मौत हो जाती है तो सभी परिजन बारह दिन तक शोक मानते हैं। तत्पश्चात तेरहवीं का संस्कार होता है इस दिन के संस्कार के अंतर्गत पहले कम से कम तेरह ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में जीमना या संपीडन भी कहते हैं। उसके बाद पंडितों द्वारा बताई गयी वस्तुएं मृतक की आत्मा की शांति के लिए ब्राह्मणों को दान में दी जाती हैं। उसके पश्चात् सभी आगंतुक रिश्तेदारों, मित्रों एवं मोहल्ले के सभी अड़ोसी-पड़ोसियों को मृत्यु भोज के रूप में दावत दी जाती है। कई जगह हमनें देखा है कि मृत्यु भोज के नाम पर पूरा गांव का गांव व आसपास का पूरा क्षेत्र प्रसादी के लिए बुलाया जाता है, इसके लिए 2-3 दिन पहले से हलवाई मिठाईयां बनाना शुरू कर देते हैं। तब यह हैसियत दिखाने का अवसर बन जाता है। सभी आगंतुकों से प्रसाद ग्रहण करने के लिए आग्रह किया जाता है। जैसे कोई ख़ुशी का उत्सव हो। विडंबना यह है ये सभी संस्कार कार्यक्रम घर के मुखिया के लिए कराना आवश्यक होता है, वर्ना मान्यता के अनुसार मृतक की आत्मा को शांति नहीं मिलती, चाहे परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण उसकी शांति वर्षों के लिए भंग हो जाय (उसे कर्ज लेकर संस्कार आयोजित करना पड़े)।

दूसरी तरफ यदि परिवार संपन्न है, परन्तु घर के लोग इस आडम्बर में विश्वास नहीं रखते तो उन्हें मृतक के प्रति संवेदनशील और कंजूस जैसे शब्द कह कर अपमानित किया जाता है। क्या यह तर्क संगत है, परिवार के सदस्य की मौत का धर्म के नाम पर जश्न मनाया जाय ? क्या यह उचित है आर्थिक रूप से सक्षम न होते हुए भी अपने परिजनों का भविष्य दांव पर लगा कर मृत्यु भोज किया जाये ? मृत्युभोज का मुद्दा पिछले दिनों से सोशल मीडिया पर छाया हुआ है। सोशल मीडिया पर लम्बी बहस चल रही है, सबके अपने-अपने तर्क हैं। कई विद्वानों का मानना है कि यह एक सामाजिक बुराई है, इसे बंद किया जाना चाहिए। हालातों पर नजर डालें तो आज वाकई में यह बड़ी बुराई बन चुका है। अपनों को खोने का दु:ख और ऊपर से तेहरवीं का भारी भरकम खर्च !इस कुरीति के कारण कई दुखी परिवार कर्ज के बोझ में तक दब जाते हैं, जो सभी के मन को द्रवित करता है। लेकिन जो हो रहा है इसके लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। मृत्यु भोज के पीछे तो हमारे मनीषियों की सोच कुछ और ही रही है, जो मनोवैज्ञानिक है। वास्तव में यह एक अनूठी व्यवस्था है, जिसे दिखावे के चक्कर में हमने ही विकृत कर डाला है। वक्त के साथ इसमें जो विकृतियां आई हैं, बस इन्हें दूर करके इसे मूल स्वरूप में पुन: स्थापित किया जा सकता है। भागवत गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने मृत्यु भोज को अनुचित माना है, श्रीकृष्ण ने कहा कि जब भोजन कराने वाले का व भोजन करने वाले का मन प्रसन्न हो तभी भोजन करना चाहिए।