ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड ने भारत के मुसलमानों के नाम आज एक अपील जारी करके कहा है कि वे किसी गैर-मुस्लिम से शादी न करें। यदि वह ऐसा करते हैं तो यह बहुत ही दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण होगा। बोर्ड का पूरा सम्मान करते हुए मैं कहना चाहता हूं कि यदि देश में अंतरधार्मिक, अंतरजातीय और अंतरभाषिक शादियों की बाढ़ आ जाए तो यह देश हिमालय से अधिक सुदृढ़ बन जाएगा। मैं तो वह दिन देखना चाहता हूं कि ऐसी शादियों की संख्या देश में हर साल कम से कम एक करोड़ जरुर हो जाए। प्रेम-सगाई से बड़ी दुनिया में कोई सगाई नहीं हो सकती। उससे बड़ा कोई धर्म-विवाह नहीं हो सकता। यदि भारत में ऐसी शादियों की संख्या बढ़ जाए तो सबसे बड़ा खतरा उन नेताओं के लिए पैदा हो जाएगा, जिनकी राजनीति का आधार सांप्रदायिकता, जातिवाद, प्रांतवाद आदि बना हुआ है। ऐसे नेताओं और पार्टियों को अपनी दुकानें समेटनी पड़ जाएंगी। इसके अलावा मिश्रित धर्मों और जातियों के लोगों के लिए आरक्षण की पोंगापंथी परंपरा अप्रासंगिक हो जाएगी। ऐसे परिवारों में पैदा हुए बच्चे अपने माता-पिता के धर्मों की अच्छी-अच्छी बातें स्वीकार करेंगे और वे उन धर्मों की गई-गुजरी तथा तर्कहीन पंरपराओं का परित्याग कर सकेंगे। वे अंधविश्वास की बेड़ियों में जकड़े नहीं रहेंगे। इतना ही नहीं, जिन देशों में अब भी आम लोगों पर मजहबों का नशा चढ़ा रहता है, उनमें ऐसे लोगों की संख्या बढ़ेगी, जो दूसरे मजहबों के लोगों के प्रति उदार होंगे। दूसरे शब्दों में धार्मिक साहिष्णुता अपने आप बढ़ेगी। सभी मजहबों के धर्मग्रंथ आप देख डालिए। किसी भी धर्मग्रंथ में आपको यह लिखा नहीं मिलेगा कि आप किस धर्म वाले से शादी करें और किस से न करें? ये धर्मग्रंथ ईश्वर ने बनाए हैं तो वह ईश्वर या अल्लाह ही क्या है, जो अपने बंदों में भेदभाव करे? यों भी वेदों के काल में सिर्फ आर्य थे। यहूदी, बौद्ध, जैन, ईसाई और मुसलमान नहीं थे। ओल्ड टेस्टामेंट के जमाने में पृथ्वी पर कोई ईसाई या मुसलमान भी नहीं था। बाइबिल के जमाने में कोई मुसलमान नहीं था और कुरान जब आई तब अरब देश में कोई हिंदू या सिख भी नहीं था। इसीलिए धर्म के आधार पर किसी के साथ शादी में परहेज़ की बात बिल्कुल बनावटी लगती है। हां, यदि सिर्फ धर्म-परिवर्तन के इरादे से कोई शादी की जाती है या भय, लालच, ठगी उसके पीछे है तो वह बिल्कुल अनैतिक है। ऐसी शादियां अगर समानधर्मी हैं तो वे भी अनैतिक हैं। मुस्लिम बोर्ड ने देश के मुसलमानों से अनुरोध किया है कि वे अपनी बेटियों को सह-शिक्षा संस्थाओं में न पढाएं और उनकी शादियां भी वे छोटी उम्र में ही करवा दें। देरी न करें। क्यों न करें? क्योंकि फिर कहीं वे स्वेच्छा से अपना पति न चुन लें। हर हिंदू या मुसलमान या ईसाई लड़के और लड़की को उसकी स्वेच्छा से वंचित करके उसे शादी की भट्टी में झोंकना कहां तक उचित है?