हर्षित सैनी
रोहतक, 28 फरवरी। ब्रेकथ्रू साईंस सोसायटी के राष्ट्रीय महासचिव प्रोफेसर सौमित्र बनर्जी, भटनागर अवॉर्डी व आईआईएसईआर, कोलकाता ने राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के मौके पर आम जनता के लिए महत्वपूर्ण संदेश जारी किया।
उन्होंने अपने संदेश में कहा कि ‘नेशनल साईंस डे’ आज ऐसे समय में मनाया जा रहा है, जब भारत में विज्ञान एक नाजुक स्थिति से गुजर रहा है। जो लोग सत्ता में हैं, उनके द्वारा अवैज्ञानिक विचार व अंधविश्वास फैलाए जा रहे हैं। लंबे समय से ऐसी शिक्षा प्रदान की जा रही है जिसने छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को पैदा नहीं किया है।

उनका कहना था कि आज भी विज्ञान पढ़े-लिखे लोग, यहां तक कि वैज्ञानिक भी विभिन्न अवैज्ञानिक विश्वास व अंधविश्वास को मानते हैं। विज्ञान के ज्ञान से वंचित जो लोग हैं, उनमें स्वाभाविक रूप से प्रश्न करने की प्रवृत्ति नहीं होती। इसका फायदा उठाकर विभिन्न तरह के अवैज्ञानिक विचारों को फैलाया जाता है और आम जनता उनमें विश्वास कर लेती है।
प्रोफेसर सौमित्र बनर्जी ने कहा है कि ऐसी परिस्थिति में वैज्ञानिक समुदाय का यह कर्तव्य बनता है कि वैज्ञानिक-मनोवृति का लोगों में जमकर प्रचार-प्रसार करें। यह सत्य है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण हमारे संविधान का महत्वपूर्ण अंग है। यह सभी नागरिकों का संवैधानिक कर्तव्य भी है कि वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं व उसका प्रचार प्रसार करें। परंतु सत्ता में बैठे लोगों द्वारा इस संवैधानिक कर्तव्य को पैरों तले रौंदा जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में वैज्ञानिक समुदाय को स्वयं ही आगे आकर कार्य करना होगा। नहीं तो, विज्ञान का भविष्य अंधकारमय होना तय है।
ब्रेकथ्रू साईंस सोसायटी के पदाधिकारियों ने कहा कि भारत में विज्ञान के इतिहास को भी समझना जरूरी है। यह सही है कि भारत में विज्ञान की बहुत ही समृद्ध परंपरा रही है। इस काल को सैद्धांतिक काल कहा जाता है। वैदिक काल के बाद जब बुद्ध और जैन धर्म का भारत में विकास हुआ तब वैदिक काल का प्रभाव धीरे-धीरे कम होता चला गया। ऐसे समय में भारत में विज्ञान व तकनीकी की काफी खोज हुई थी व उसका विकास हुआ था।

उन्होंने बताया कि चरक व सुश्रुत ने मेडिकल साइंस तथा पाणिनि ने व्याकरण शास्त्र दिया था। भारत में जीरो की खोज हुई। अंक गणित, बीजगणित, त्रिकोणमिति व ज्योमेट्री आदि में आर्य भट्ट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य आदि का अतुलनीय योगदान रहा है। परन्तु यह परंपरा लंबे समय तक नहीं चली। हमने देखा यूरोप में ‘डार्क मिडल एज’ था, उसी तरह भारत में भी लगभग नौवीं शताब्दी से शुरू करके 11वीं शताब्दी के बाद तक भी ‘डार्क मिडल एज’ था। इस काल में विज्ञान पर कोई कार्य नहीं हुआ। 19वीं शताब्दी में राममोहन, विद्यासागर आदि के प्रयासों से नवजागरण आया।
ब्रेकथ्रू साईंस सोसायटी के पदाधिकारी के अनुसार दोबारा से भारत में विज्ञान की चर्चा शुरू हुई और उस पर शोध कार्य शुरू हुआ। विभिन्न तरह के रीति रिवाज, कुरीतियां, अंधविश्वास, विधवाओं को जिंदा जलाना आदि के खिलाफ लोगों ने डटकर संघर्ष किया। एक नए समाज की स्थापना की। उस समय जगदीशचंद्र, आचार्य प्रफुल्ल चंद्र, मेघनाथ साहा, सत्येंद्र नाथ बोस, रामानुजन जैसे वैज्ञानिकों ने विज्ञान की चर्चा की परंतु यह याद रखना होगा कि यह वो समय था जब विज्ञान अंधविश्वास एवं अवैज्ञानिक विचारों से लड़ाई लड़ रहा था।

उन्होंने बताया कि उस समय के वैज्ञानिकों ने विज्ञान को खाने-कमाने के रूप में एक कैरियर नहीं बनाया बल्कि उन्होंने सभी के पुनरुद्धार के लिए कार्य किया। परंतु बाद में, इन वैज्ञानिकों को विज्ञान के आदर्श के रूप में पेश नहीं किया गया।
ब्रेकथ्रू साईंस सोसायटी के राष्ट्रीय महासचिव प्रोफेसर सौमित्र बनर्जी ने कहा कि आज विज्ञान को पैसा कमाने के एक कैरियर के अलावा और कुछ नहीं समझा जाता है। ऐसी स्थिति में वैज्ञानिक समुदाय को विज्ञान पर आज के उभरते खतरे के खिलाफ उठना चाहिए। सांस्कृतिक विकास के लिए काम करना चाहिए।
उनका कहना था कि आज अवैज्ञानिक, पोंगापंथी व दकियानूसी ताकतें अपना सिर उठा रही हैं। जब तक इनके खिलाफ कड़ा संघर्ष शुरू नहीं किया जाएगा तब तक विज्ञान को नहीं बचाया जा सकता। आज एक नए विज्ञान आंदोलन की जरूरत है, यही वक्त की पुकार है।