राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी की तरफ से 13 सितंबर को एक प्रेस विज्ञप्ति आई जिसमें कहा गया कि पार्टी के जिला अध्यक्ष मोहनलाल गुप्ता, विधायक कालीचरण सराफ समेत पार्टी के पदाधिकारी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन सप्ताह मनाए जाने के अवसर पर आनंदीलाल पोद्दार स्कूल में मूक-बधिर बच्चों को फलों का वितरण करेंगे. उसके ठीक थोड़ी देर बाद पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष वसुंधरा राजे के निजी मीडिया प्रभारी के यहां से मैसेज आया कि वसुंधरा राजे भी उस कार्यक्रम में शामिल होंगी, वसुंधरा राजे वहां पहुंची और बीजेपी के बाकी के नेताओं के साथ मूक-बधिर बच्चों को फलों का वितरण किया

यह असामान्य सी घटना पिछले कुछ दिनों से घट रही थी. जब बीजेपी पार्टी की तरफ से जारी प्रेस विज्ञप्ति में किसी भी इनविटेशन में वसुंधरा राजे का नाम नहीं होता था. मगर वसुंधरा राजे उस कार्यक्रम में पहुंच जाती थीं. मूक-बधिर बच्चों के फल वितरण के कार्यक्रम के 3 घंटे बाद 14 सितंबर को ही दिल्ली से बीजेपी के प्रदेश महामंत्री सतीश पूनिया को राजस्थान बीजेपी का प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने की घोषणा हो गई. वसुंधरा राजे जयपुर में थीं, मगर वह सतीश पूनिया को बधाई देने के लिए बीजेपी के दफ्तर नहीं आईं. और न ही नवनियुक्त प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया वसुंधरा राजे के बंगले 13 सिविल लाइंस पर उनसे आशीर्वाद लेने के लिए पहुंचे.

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वसुंधरा राजे ने बीजेपी के बाकी के नेताओं के साथ मूक-बधिर बच्चों को फल बांटे

राजस्थान बीजेपी के पिछले 20 सालों के इतिहास में यह भी एक असामान्य घटना थी. वसुंधरा राजे की इच्छा के विपरीत बीजेपी में किसी को प्रदेश अध्यक्ष की कमान मिली थी. अभी तक राजस्थान बीजेपी में वसुंधरा राजे जो चाहती थीं वही होता था. अगर उनकी मर्जी का नहीं होता था तो फिर वह पद खाली रखा जाता था. इस बार भी पूर्व प्रदेश अध्यक्ष मदन लाल सैनी की मृत्यु के बाद ढाई महीने से ज्यादा वक्त तक राजस्थान प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष का पद खाली रहा, क्योंकि वो अपने किसी पसंद के व्यक्ति को प्रदेशअध्यक्ष बनवाना चाहती थीं. कहा जा रहा था कि बीजेपी के राज्यसभा सांसद नरायण पंचारिया के लिए वो दिल्ली में लॉबींग कर रहीं थी. मगर बीजेपी ने संघ से आए संगठन प्रभारी चंद्रशेखर की पसंद सतीश

मदन लाल सैनी के प्रदेश अध्यक्ष बनने से पहले भी 2 महीने से ज्यादा वक्त तक राजस्थान में प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष का पद खाली रहा था क्योंकि वसुंधुरा को कोई ऐसा बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष चाहिए था जिसकी डोर वो अपने हाथों में रखें. चुनाव से ठीक पहले तक बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व झक मारकर मदल लाल सैनी पर सहमत हुआ था. बीजेपी के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि किसी राज्य में चुनाव हो और वहां प्रदेश अध्यक्ष पद का फैसला बीजेपी का आलाकमान इतने लंबे वक्त तक नहीं कर पाया हो, वह भी तब जब बीजेपी में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी का सिक्का चलता हो. वसुंधरा राजे के आगे अगर उन्होंने सरेंडर नहीं किया तो अपनी मनमानी भी नहीं कर पाए. मगर सतीश पूनिया के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद अचानक से सब कुछ बदल गया है. वसुंधरा राजे के 13 सिविल लाइंस पर सन्नाटा छाया रहा और 3 किलोमीटर की दूरी पर बीजेपी दफ्तर में आतिशबाजी होती रही. यह सब बता रहा था कि राजस्थान बीजेपी में अब बहुत कुछ ही नहीं, सब कुछ बदल गया है. राजनीति बहुत निष्ठुर होती है. अर्श और फर्श की न्यूनतम दूरी का पेशा है ये.

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सतीश पूनिया के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद राजस्थान बीजेपी में अब सब कुछ बदल गया है

सतीश पूनिया ने इशारों-इशारों में साफ कर दिया कि बीजेपी कार्यकर्ताओं की पार्टी है. यहां बड़े और छोटे नेता सब बराबर हैं. नेता आते-जाते रहते हैं, पार्टी बनी रहती है. 1995 में जब लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष थे तब सतीश पूनिया महामंत्री हुआ करते थे यानी बीजेपी ने दोनों को महत्वपूर्ण पद पर बैठा कर यह साफ कर दिया कि राजस्थान में अब दूसरी पीढ़ी के नेताओं के हाथ में कमान दे दी गई है. जल संसाधन मंत्री गजेंद्र सिंह एक ताकतवर मंत्री के रूप में राजस्थान में अपनी जगह बना चुके हैं. संघ परिवार से आने वाले कैलाश चौधरी को भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में जगह मिल गई है. यह सभी बीजेपी की नई पीढ़ी के नेता हैं जिन्होंने एक साथ भारतीय जनता युवा मोर्चा में काम किया है. पूर्व उपराष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत के बाद वसुंधरा राजे के साथ बीजेपी की राजनीति में जो नेता थे उनमें से ज्यादातर पुराने नेता किनारे कर दिए गए हैं. वसुंधरा के धुर विरोधी नेताओं के हाथ में पार्टी की कमान है.

वसुंधरा के करीबी रहे राजेंद्र राठौड़ आजकल नरेंद्र मोदी और अमित शाह के करीबी होने की कोशिश कर रहे हैं. मगर वह जनता दल परिवार से आए हैं, लिहाजा संघ निष्ठ बीजेपी किसी जिम्मेदारी देने के लिए उनपर भरोसा नहीं करती है. इसी तरह से आईएएस की नौकरी छोड़कर राजनीति में आए केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल भी संघ परिवार से नहीं आने की वजह से पार्टी के लंबे समय तक की प्लानिंग में फिट नहीं बैठते हैं. राज्यवर्धन सिंह राठौर खेल के मैदान से नए-नए राजनीति के मैदान में आए हैं लिहाजा बीजेपी ने इस हाईप्रोफाइल नेता को अब ज्यादा महत्व देना छोड़ दिया है. इसलिए साफ है कि राजस्थान बीजेपी में अब ओम बिरला, गजेंद्र सिंह, सतीश पूनिया और कैलाश चौधरी जैसे नेता अमित शाह और नरेंद्र मोदी की पसंद हैं.

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इस बार अपनी पसंद का अध्यक्ष नहीं बना सकीं वसुंधरा राजे

यह सभी नाम वसुंधरा राजे को कभी पसंद नहीं रहे. लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला वसुंधरा राजे के 5 साल के कार्यकाल में न केवल हाशिए पर रहे बल्कि मोदी और अमित शाह की गरीबी की वजह से प्रताड़ित भी किए गए. यहां तक कि जब वह लोकसभा अध्यक्ष के रूप में राजस्थान विधानसभा में पहली बार बुलाए गए तभी वसुंधरा राजे बड़ा दिल नहीं दिखा पाईं और विधानसभा में नहीं आईं. गजेंद्र सिंह जब प्रदेश अध्यक्ष बनना चाहते थे तो उनके खिलाफ वसुंधरा राजे ने बीजेपी के नेताओं को ही उतार दिया. जिसकी वजह से अमित शाह नरेंद्र मोदी को अपनी पसंद बदलनी पड़ी और कंप्रोमाइज कैंडिडेट के रूप में मदन लाल सैनी आए थे. कहते हैं कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह अपनी उस बेईज्जती को भूले नहीं है. चुनाव हारने के बाद वसुंधरा राजे को भले ही राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया गया हो लेकिन कहा जाता है कि बीजेपी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष वसुंधरा राजे ने कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा से कहा कि मुझे भी कुछ काम दिया जाए.

वसुंधरा राजे के साथ समस्या यह है कि वह घाघ राजनीतिज्ञ नहीं हैं. वह अमित शाह, नरेंद्र मोदी के खिलाफ अपने दिल में जो रहता है उसे छुपा नहीं पाती हैं. नोटबंदी जैसे नरेंद्र मोदी के फैसले का वह आज तक स्वागत नहीं कर पाईं. लोग तो यहां तक कहते हैं कि अगर वसुंधरा राजे नरेंद्र मोदी के आगे सरेंडर हो गई होतीं तो राज्य में महज 1 लाख 42 हजार वोट से सत्ता नहीं जाती. वसुंधरा राजे भी यह मानती हैं कि लोकसभा चुनाव में जितना बीजेपी के राष्ट्रीय नेताओं ने मेहनत की उतना अगर विधानसभा चुनाव में की होती तो शायद उनकी सत्ता नहीं जाती. जब वसुंधरा मुख्यमंत्री थीं और प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी केंद्र में थे तब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अक्सर मजाक उड़ाया करते थे कि आप एक तस्वीर दिखा दीजिए जिसमें नरेंद्र मोदी और वसुंधरा राजे एक साथ मुस्कुराकर मिले हों. यह धारणा बनती चली गई कि वसुंधरा राजे और नरेंद्र मोदी में बनती नहीं है. वसुंधरा राजे को इस धारणा की वजह से नुकसान उठाना पड़ा. यहां तक कि नारे लगने लगे कि मोदी तुमसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं. मगर उसके बावजूद वसुंधरा राजे ने कभी मोदी से बेहतर रिश्ते रखने के लिए खास प्रयास नहीं किया.

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वसुधरा अमित शाह, नरेंद्र मोदी के खिलाफ अपने दिल की बात छुपा नहीं पातीं

जब बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह थे तब वसुंधरा राजे पहली बार मुख्यमंत्री के रूप में रहते हुए चुनाव हार गईं थी. उनसे कहा गया कि नेता प्रतिपक्ष के रूप में उनकी जगह गुलाबचंद कटारिया को बनाया जाएगा तब वसुंधरा राजे ने ऐसे तेवर दिखाए कि राजनाथ सिंह को घुटने टेकने पड़े और वसुंधरा राजे को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया. इसी तरह से जब चुनाव से पहले गुलाबचंद कटारिया ने कहा कि वह रथयात्रा पर राजस्थान में निकलना चाहते हैं तो वसुंधरा राजे ऐसी जिद पर अड़ीं कि अगर कटारिया रथ यात्रा लेकर राजस्थान में निकले तो वह नई पार्टी बना लेंगी. आखिरकार पार्टी को बचाने के लिए कटारिया को कहना पड़ा कि मैं अपनी यात्रा का प्लान वापस लेता हूं. दरअसल वसुंधरा राजे जब चाहे, जैसे चाहे, बीजेपी को अपनी उंगलियों पर नचाती रहीं और बीजेपी के नेता वसुंधरा राजे के आगे घुटने टेकते रहे.

वसुंधरा राजे राजस्थान की राजनीति में मनमानी करती रहीं और केंद्रीय नेतृत्व उनकी जीत के आगे घुटने टेकता रहा. बस यहीं से वसुंधरा राजे को गलतफहमी हो गई कि राजस्थान में वह जो चाहेंगी, वह करेंगी. तब उनके शागिर्द रहे राजेंद्र राठौड़ ने यहां तक नारे लगा दिए थे कि राजस्थान में वसुंधरा मतलब बीजेपी और बीजेपी मतलब वसुंधरा है. मगर यह समझ नहीं पाईं कि हालात बदल गए हैं. अब वह पहले वाली बीजेपी नहीं रही है. अब यहां अमित शाह जैसा मजबूत राष्ट्रीय अध्यक्ष है जो आदेश देता है और बीजेपी के प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी है़ं जो एक बार तय कर लें तो उसे पूरा करके ही मानते हैं. वसुंधरा राजे आज अकेली पड़ी हैं. जयपुर हवाई अड्डे पहुंचती है़ं तो उनके यहां से बीजेपी कार्यकर्ताओं को फोन किया जाता है कि वसुंधरा जी आ रही हैं स्वागत के लिए आप लोग एयरपोर्ट पर पहुंचिए. कार्यकर्ता आपस में कानाफूसी करते हैं कि कौन जाएगा, क्या पता, ऊपर पता चल गया तो पत्ता कट जाए. यानी जिस वसुंधरा राजे से मिलने के लिए कई मीटर की कतारें लगती थीं उन्हें आज स्वागत के लिए कार्यकर्ताओं की गिनती करनी पड़ रही है.

इसके लिए दोषी कोई और नहीं खुद वसुंधरा राजे ही हैं. बीजेपी के इतिहास में सबसे बड़ा बहुमत लेकर आने वाली वसुंधरा राजे आज हाशिए पर है. वसुंधरा राजे से पहले राजस्थान के राजनीति में बीजेपी ने अपने दम पर कभी भी बहुमत हासिल नहीं किया था. पूर्व उपराष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत चार बार मुख्यमंत्री रहे और चारों बार जुगाड़ की सरकार बनाई थी. वसुंधरा राजे पहली बार में उस वक्त के बेहद लोकप्रिय सरकार के मुखिया अशोक गहलोत के खिलाफ 120 सीटें जीतीं थीं तो दूसरी बार राजस्थान में रिकॉर्ड बनाते हुए 162 सीटों का आंकड़ा छुआ था. मगर इसके साथ ही जनता की उम्मीदें भी बढ़ गईं. वसुंधरा राजे को लगा कि उनके चेहरे पर राजस्थान की जनता लट्टू है. मगर यह जनता है, कब सिर पर बैठा ले और कब उतार फेंके पता ही नहीं चलता. वसुंधरा राजे आज जयपुर, धौलपुर और दिल्ली के बीच अपने राजनीतिक जगह की
तलाश में जद्दोजहद कर रही हैं.

मगर वसुंधरा राजे को जानने वाले कहते हैं कि वह फाइटर हैं और वह लौटकर आएंगी. जिस तरह से आज वह बीजेपी के दूसरे दर्जे के नेताओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर बिना किसी आमंत्रण के किसी भी कार्यक्रम में घुसकर जनता के बीच अपनी जगह बनाए रखने की कोशिश कर रही हैं, यह दिखाता है कि वसुंधरा राजे के अंदर फाइट बैक करने का माद्दा है. यह भी कहा जा रहा है कि संघ की एक ऐसी पीढ़ी अभी भी बची है जिसे यह लगता है कि राजमाता विजयराजे सिंधिया का बीजेपी को खड़ा करने में बड़ा योगदान और एहसान रहा है. ऐसे में वसुंधरा राजे के खिलाफ नरम रुख रखा जा सकता है. मगर सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि वसुंधरा राजे जो कुछ अपने दिल में रखती हैं उसे अपने चेहरे पर नहीं आने दें. यह उनसे होता नहीं है और यही उनका दुश्मन है.