Holi a Thirst

होली पर एक प्यास ऐसी भी….

होली रंगों का पर्व है, फिर चाहे वो गुलाल का रंग हो, श्रृंगार का, लोक अथवा हास्य का।रंग और जीवन एक दूजे के पर्याय है। तभी तो लोकनाट्य परंपरा के प्रतीक रम्मते, नौटंकियां, ख़्याल-चौमासे आदि शताब्दियों से मंचित होते आ रहे हैं। बात अगर हम लोक-रंजन की करें तो इनमें लोकगीतों एवं लोकवाद्यों का अपना अलग ही महत्व है। पिछले कुछ सालों से होली के दिनों में चंग- मंझिरे, बांसुरी और ढोलकी जैसे वाद्य यंत्रों को लिए होली के लोकगीतों को गाती रसिकों की टोलियाँ बहुत ही कम दिखाई देती है। मस्तानों की ये टोलियां इस पर्व की ख़ास पहचान है,लेकिन आज डी.जे. के युग में उन वाद्यों की वास्तविक सुमधुर सुर-लय-ताल सुनने को नहीं मिलती।

जिस समय मोबाइल का आविष्कार नहीं हुआ था तब टेपरिकॉर्डर या डेक के माध्यम से लोग होली के लोकगीतों और फि़ल्मी होली गीतों को सुनकर अपना आनंद लेते थे। आज भी उन पुरानी हिंदी फि़ल्मों के होली गीतों को देख और सुन हम एक आदर्श होली को देखने, सुनने और महसूस करने की प्यास को बुझाने की कोशिश करते हैं। फिल्मो के कुछ होली गीतों में लोकवाद्यों की लोकधुनों का अद्भुत समावेश है, तभी तो इतने साल बीत जाने पर भी उन गीतों का प्रभाव कायम है बल्कि यह कहना ग़लत नहीं होगा कि वे गीत होली के पर्याय बन गए हैं। कहीं ऐसा ना हो जाए कि भविष्य में ये फि़ल्मी गीत हम लोगों के लिए सिर्फ और सिर्फ एक यादगार बन जाए? या इनका स्थान सिर्फ फिल्मों व अल्बम तक सीमित हो जाये?

आधुनिकता के शोर में खामोश हुए लोकगीत

क्या हमारा मन-मस्तिष्क इन लोकगीतों और लोकधुनों की कमी महसूस नहीं करता? वर्षों से आकाशवाणी इन लोक कलाकारों की कला की कद्र करता आ रहा है लेकिन बीते कुछ वर्षों से इस विषय में आकाशवाणी भी इन कलाकारों की नई रिकॉर्डिंग नहीं कर पा रहा है। होली के लोकगीतों को गाती-बजाती मस्तानों की टोली किताबों, कि़स्सों या आभासी फि़ल्मी-गीतों तक ही सिमट कर रह जायेगी?अब शायद इन लोकवाद्य यंत्रों को बजाने और लोकगीतों को गाने वाले कलाकारों की खेप तैयार नहीं हो रही?

क्या अश्लिलता इन पर भारी पड़ रही है? क्या इन वाद्ययंत्रों की वास्तविक सरगम कंप्यूटराइज्ड धुनों से गुणवत्ता में कम है? क्या हर साल हमारा मन-मस्तिष्क इन लोकगीतों और लोकधुनों की प्यास महसूस नही करता?

ऐसे अनेक प्रश्नों को हमने अपने दिल के कोने से सुना है, परन्तु इनके जवाबों की तलाश ज़ारी है।

हालांकि कुछ शहरों एवं गाँवों में कुछ जगहों पर ऐसे कुछ कलाकारों और रसिकों की टोली या ग्रुप नजऱ आते हैं, ऐसे में उन कलाकारों को हृदय से नमन है कि वे होली के इस रमणीय स्वरूप को बरकरार रखे हुए हैं।

चन्द्रशेखर जोशी ‘आज़ाद’

उद्घोषक, आकाशवाणी बीकानेर