भारत में शिक्षा की अलख जलानें वाले महात्मा ज्योतिराव फूले का जन्म 11 अप्रेल 1827 को गोविन्दराव चिमनाबाई माले के यहां पुणे (महाराष्ट्र) में हुआ। जन्म के एक वर्ष पश्चात ही आपकी माता का देहान्त हो गया। पिता गोविन्दराव को माली बिरादरी वालों ने बहुत समझाया कि बच्चा छोटा है। इसकी देखभाल हेतु आप दूसरी शादी करलो। किन्तु पिता ने ऐसा करने से साफ मना कर दिया। धीरे-धीरे बालक ज्योतिराव बढने लगा तो पिता को इसकी पढाई की चिन्ता सतानें लगी क्योंकि गोविन्दराव माली स्वयं निरक्षर थे लेकिन वे चाहते थे कि उनका पुत्र गुणवान पढा लिखा हो जो आगे चलकर भारत मां का भविष्य संवार सके। उस समय जातिवाद का जहर चहुं ओर फैला हुआ था अत: ज्योतिराव का पढना मुश्किलों से भरा हुआ था।

लेकिन ज्योतिराव की पढाई के प्रति रूचि को देखकर उसकी शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था की गई। अब ज्योतिराव दिन में पिता के साथ खेती-बाड़ी का काम करते व रात को अपनी पढाई करते। 1841 में उन्हें स्कूल में प्रवेश मिला, सर्वोच्च अंक प्राप्त कर ज्योतिराव ने सभी को आश्चर्य चकित कर दिया अब वे जान गए कि जातिवाद के जहर को जड़ से खत्म करनें पर ही समाज को एक सूत्र में बांधा जा सकता है, इसके लिए शिक्षा ही सर्वोपरी साधन है।

ज्योतिराव ने हिन्दू धर्म की विसंगतियाँ, ऊँच-नीच, जाति-पांति, समाज में फैले अंधविश्वास और कुरीतियों को मानव विकास में सबसे बडी बाधा माना, वर्ण-व्यवस्था की खोखली सामाजिक दिवारों, धार्मिक पाखण्ड को जड़ से समाप्त करने का प्रण लिया क्योंकि हिन्दू धर्म की ऊँच-नीच की इन अमानवीय स्थितियों ने ज्योतिबा को पाठशाला से निकाल दिया गया। तीन वर्षों की कडी मेहनत के बाद अपनें दम पर एक बार पुन: स्कूल में प्रवेश लिया। इस बार उन्होंने अंग्रेजी भाषा की पढाई में मन लगाया और उच्च अंकों से सातवीं कक्षा उतीर्ण की। जो उस समय की अन्तिम पढाई मानी जाती थी।

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14 वर्ष की आयु में ज्योतिराव की शादी नाय गांव की आठ वर्षीय सावित्री से कर दी गई। समाज में फैले विद्वेष को दूर भगानें, अपनी रक्षा करनेें हेतु ज्योतिराव ने शस्त्र विद्या मांग जाति के उस्ताद लहुजी साल्वे से प्राप्त कर सामाजिक क्रान्ति का बिगुल बजाया। उस समय बहुजन समाज अज्ञानता के गर्त में था। उन्हें कोई अधिकार नहीं थे, उनकी कोई सुनने वाला नहीं था। ज्योतिराव इस बात से खफा थे कि दिन रात काम करके, खून पसीना एक करके खेती बाडी करने वाला मजदूर खाली हाथ रहता है और मालिक धन जोडने की जुगत में लगा रहता है। उनको मजदूरों पर दया आई उन्होंने देखा कि मजदूर वर्ग के पास रहने को झोंपड़ी नहीं सोने को बिस्तर नहीं इस सोच ने उनमें बगावत की भावना को पैदा किया। वे इन सड़ी गली कुप्रथाओं, परम्पराओं को शिक्षा द्वारा जाग्रति लाकर दूर करना चाहते थे। वे चाहते थे कि समाज को संगठित करके शिक्षा का ज्यादा से ज्यादा प्रचार प्रसार किया जावे ताकि मजदूर वर्ग अपने अधिकारों व स्वाभिमान की रक्षा कर सके।

इन्हीं विचारों के चलते ज्योतिबा फूले ने 24 सितम्बर 1873 में सत्य शोधक समाज की स्थापना की। ज्योतिबा के जीवन का एक मात्र लक्ष्य शिक्षा द्वारा न्याय और मानव अधिकारों के लिए संघर्ष बन गया। शिक्षा से ही मनुष्य अपने अधिकारों को जान सकता है अत: ज्योतिबा फूले ने 1848 में पुणे (महाराष्ट्र) में पहला स्कूल शुरू किया जिसमें पत्नी सावित्री फूले के साथ मिल तन,मन,धन से स्कूल चलाया और बिना भेदभाव सभी वर्गों की महिलाओं को पढाया, आगे बढ़ाया उन्हें उनके अधिकार समझाए। इतना कुछ करने के बावजूद दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति यह है कि उन्हें याद नहीं किया जा रहा है। जबकि 1888 में जन्में राधाकृष्ण के जन्म दिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। महात्मा ज्योतिबा फूले ने तो शिक्षा की अलख जलाने हेतु वर्ष 1848 में ही स्कूल खोल दिया जिसमें बिना भेदभाव के सभी को शिक्षा प्रदान की जाती थी। पौराणिक काल के किए कार्य गौण हो गए।

सच ही कहा है कि नींव के पत्थर कहीं दिखाई नहीं देते, कंगुरे सभी को दिखाई देते है। गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने महात्मा ज्योतिबा फूले के बारे में कहा- जब तुम्हारा कोई साथ न दे तो अकेले ही पथ पर चलते रहो, सहस्त्रों वर्षों से उत्पीडि़त शोषितों के जीवन में नया प्रकाश फैलाने के लिए। अल्पायु में ही ज्योतिबा अकेले चले थे, केवल जीवन संगीनी का ही उन्हें सम्बल प्राप्त था। महात्मा गांधी कहते थे- असली महात्मा तो महात्मा ज्योतिबा फूले ही है। डॉ. भीमराव अम्बेडकर कहते थे- असली महात्मा ज्योतिबा फूले जिन्होंने हिन्दू समाज की छोटी जातियों को उच्च वर्णों के प्रति अपनी गुलामी की भावना के सम्बन्ध में जाग्रत किया और जिन्होंने विदेशी शासन से मुक्ति पाने से भी अधिक सामाजिक लोकतन्त्र की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
आज के इस आपाधापी युग हम भूल जाते है उन नींव के पत्थरों को जिन्होंने हमको बोलना सिखाया, बोलने का अधिकार समझाया। असली पूजा तो हमें उस दीपायमान नक्षत्र की करनी चाहिए। जो 11 अप्रेल 1827 में पैदा हुआ और देश में शिक्षा की अलख जलाई। इस पर्व पर हम उन्हें भी याद करें तो उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है।

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