

अशोक पंड्या ने ढूंढाड़ी लोकगीतों का रंग जमाया
जयपुर,(दिनेश”अधिकारी”)। चांद बाबा चांदी दे, घी गवां की बाटी दे। आधी दे तो खाऊं नहीं, सारी दे तो भावे नहीं। ढूंढाड़ी कवि राधेश्याम मिश्रा का यह गीत बालपन में हर घर में बच्चों को सिखाया जाता था और आज अशोक पंड्या और उनके साथी कलाकारों ने इसे गाकर फिर बचपन की यादों और ढूंढाड़ी भाषा को फिर से ताजा कर दिया।
नेट-थियेट से राजेन्द्र शर्मा राजू ने बताया कि राजस्थान संगीत नाटक अकादमी के पूर्व अध्यक्ष अशोक पंड्या और साथी कलाकारों ने ढूंढाड़ी भाषा में लोकगीतों की एक के बाद ऐसी झड़ी लगाई की ऑनलाइन कार्यक्रम देख रहे श्रोता झूम उठे। श्री पंड्या ने देख्याया कांई बालमा और चाव चाव में भूल आई ,फूल्यां की साड़ी, थोड़ी डांट रे बाबूड्यां थारी रेलगाड़ी तथा पल में टिकट थारो कट जावे लो जैसे लोकगीत गाकर माहौल को सावन की फुहारो सा सरोबार कर दिया। कार्यक्रम का संचालन हिन्दी ग्रन्थ अकादमी की पत्रिका हिन्दी बुनियाद के सम्पादक एवं साहित्यकार श्री रामानंद राठी ने किया।कोरस में अरुण, आरुषि कोडीवाल, सुनील तथा आयुष पंड्या ने बखूबी गायन किया उनके साथ ढोलक पर नईम गल्ला और नगाड़े पर इकराम खां अपनी सदी हुई संगत से लोकगीतों को परवान चढाया। मानव कुष्ठ आश्रम द्वारा कलाकारों को मास्क और सैनेटाइजर प्रदान किये गये।संगीत विष्णु कुमार जांगिड, प्रकाश मनोज स्वामी, जितेन्द्र शर्मा,, अंकित जांगिड व सेट मुकेश कुमार सैनी, अर्जुन देव, सौरभ कुमावत, अजय शर्मा, जीवितेश शर्मा, अंकित शर्मा नोनू, धृति शर्मा रहे।
