भारत सोने की चिड़िया कहलाता था ! भारत ऋषि मुनियों की तपोभूमि हैं ! यह हमारा सौभाग्य है कि हमें यह समृद्धशाली साम्राज्य विरासत में मिला ।
और भारत धर्मगुरु के रूप में मिला।
भारतीय संस्कृति की अमिट छाप है,अहिंसा प्रधान हैं, संयमित जीवन शैली हैं, मानवमात्र की सेवा हमारे संस्कार हैं भारत के प्रधानमंत्री माननीय मोदीजी की कार्यकुशलता पर दुनिया को पुर्ण विश्वास हैं, भारत एशिया का सबसे बड़ा खुदरा बाजार हैं, भारतवासियों को अपनी उदारता व कौशलता का प्रमाण देना हैं,और भारत को दुनिया का सबसे बड़ा” मेन्युफेक्चरिंग हब ” बनाने का स्वर्णिम अवसर आ गया हैं।

अपेक्षा हैं भारत “वर्तमान परिप्रेक्ष्य की समीक्षा करें” ओछी मानसिकता भरी उठा पटक राजनीति से ऊपर उठकर एकमत से भारत के विकास के लिए अन्य देशों से अन्यत्र परिवर्तन करने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियों को भारतीय ” अतिथि देवो भव: “के संस्कारों से सम्मान करते हुए हमें सृष्टि के वरदान स्वरूप विकासोन्मुख की ऊर्जावान शक्ति को आकर्षित करना चाहिए।
दुसरी ओर सम्पूर्ण मानवजाति त्राहि त्राहि कर रहीं हैं, मानव को ” कोरोना के साथ जीना सीखें ” का संकेत सर्वव्यापी मिलने लगा हैं।
क्या यह संकेत मानवता को झकझोर देने में पर्याप्त नहीं हैं ?
क्या ऐसे भयभीत माहौल में आत्मग्लानि करने की बजाय,एक दूसरे पर दोषारोपण करना उचित हैं?क्या एक दूसरे की आलोचना करना उचित हैं ? क्या एक दूसरे को प्रतिशोध की भावनाओं के लिए प्रेरित करना उचित हैं ?क्या इस समय इन्सान को इन्सानियत के प्रति क्रुरता का निंदनीय व्यवहार या क्रुरता के लिए प्रेरित करना उचित हैं ?
हमें इसकी गहनता को समझने का प्रयास करना चाहिए मानवकृत जीवाणुओं से की गई उत्पत्ति में कर्मों के बंधन व निवार्ण के विधान को समझना चाहिए और मानवमात्र की रक्षा के लिए विनाशकारी महामारी के समाधान के लिए महान ऋषि-मुनियों,संतों व शास्त्रों के ज्ञाताओं से मार्गदर्शन लेना चाहिए।
वहीं मानव को जीवनयापन के लिए संसाधनों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आगे आना होगा, इस
वक्त पटरी से उतरी बैपटरी पर लड़खड़ाती हुई दुनिया आज पुनः पटरी पर आने को बेचैन है। क्या संभावनाएं बनती हैं यह वहां के राजनैतिक गलियारों पर निर्भर हैं। दुनिया में खलबली का दौर है,जरा सी चूक मानवता के लिए महामारी से भी कहीं ज्यादा भयानकता का रुप धारण कर सकती हैं। भारत को हर पल संयम के साथ सावधान रहना चाहिए और जरुरत पड़े तो मानवता के हित में” अहिंसा परमोधर्म: “का प्रसारक बनकर शांति का सरंक्षण करना चाहिए। और नये क्षेत्रों की खोज में प्रयत्नशील उद्योग जगत को भारतीय बाजार की और आकर्षित करने में जागरूक रहना चाहिेए।

वर्तमान में हमारे पास मनोबल का सामर्थ्य मात्र ही है,
जबकि कल कारखानों से लेकर छोटे छोटे दुकानदारों तक के तालों पर जंग लग रहा हैं। इनसे जुड़े हुए सभी के सभी कामगार भुखमरी की कगार पर पहुंच गयें है, और अधिकांशतः छोटे दुकानदार व उधमी भी इसी कगार पर हैं। दुनिया में लगभग 350 करोड़ से ज्यादा लोगों के बेरोजगार होने की संभावना जताई जा रही हैं, सरकारों के खजानों को भी भरना अब इतना आसान काम नहीं हैं।
ऐसी विषम परिस्थिति में दुनिया की समस्त ईकाईयां
समाधान की शोध में व्यस्त हैं। वर्तमान में विकासशील हो या विकसित देश सभी देशों की हालत बिगड़ी हुई हैं संसार की चरमराई हुई अर्थव्यवस्थाओं को नियंत्रित करने में व्याकुल अर्थशास्त्री अमृत तुल्य संजीवनी की खोज में प्रयत्नशील हैं।
– ऐसे महाकाल से उभरने के लिए भारत को वैकल्पिक सुदृढ़ समाधान पर दृष्टिपात करना चाहिए, कि मन्दिरों, मस्जिदों, चर्चों, गुरुद्वारों, संस्थाओं, ट्रस्टों, राजनैतिक दलों,स्वयं राजनैतिक जनों, भामाशाहों एवं प्रोफेशनल वर्ग से बैंकिंग प्रक्रिया से न्युनतम ब्याज दरों से एक सीमा अवधि के लिए लोन लेना चाहिए और इस रकम का निवेश सिर्फ और सिर्फ कल कारखानों को विकसित करने व पुनः मजबूत करने के लिए एक नया प्रकोष्ठ बनाना चाहिेए।##
इस प्रकोष्ठ से हमारे छोटे मोटे व्यापारीयों व कुटीर व मध्यम उधमियों को पुनः मजबूत करने व नये क्षेत्रों में अनेकानेक ईकाईयों को चालू करने के लिए ईमानदारी के साथ दलगत राजनीति व जातिगत से ऊपर उठकर योग्यतानुसार उधमियों को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में आर्थिक सहायता देनी चाहिए। जिससे प्रभावित हो रहें 65% मध्यम वर्गीय कारोबारियों को बेरोजगार होने से बचाया जा सकता हैं और रोजगार सृजन करने वालों को भी कुछ प्रतिशत लाभांश मिल सकता हैं। और भी चहुंमुखी विकास के लिए अनेकानेक विकल्पों के द्वारा नये नये क्षेत्रों में प्रगतिशील होना चाहिए।

वक्त की विचित्र विडंबना है कि जो देश तेल का शहंशाह आलम कहलाता था, आज तेल का भंडारण क्षमता से अधिक हो जाने के कारण वहां तेल का भाव शुन्य से भी( – ) हो गया है। किसी भी प्रकार से किस के पास प्रभुत्व का साम्राज्य स्थिर बचेगा, यह कह पाना मुश्किल हैं। इसलिए विश्वस्तरीय समग्र चिंतनशील वर्ग के साथ मानवता को केन्द्रित करके वर्तमान भौगौलिक स्थितियों पर दृष्टिपात करके चिंतन करना चाहिए, और तत्पश्चात ही रुकें हुए गाड़ी के पहियों को पुनःप्रगति के पथ पर लाने की पहल करनी चाहिए।
गांव और शहर ये दोनों विकासोन्मुख रथ की ही आत्मा हैं जिसमें सार्वभौम शहरीकरण को ही सबसे ज्यादा तवज्जो दिया जाता हैं जिसके कारण आज तक गांवों का हाल बेहाल ही हैं और मजबुरन ग्रामीणों को शहरों व महानगरों का रुख करना पड़ता हैं।
आज हमें उदाहरणार्थ ऐसी संरचना करनी चाहिए
कि गांवों में ऊर्जावान युवाशक्तियों को पंगु बनाने वाली योजनाओं के बजाय ,गांवों में विकास का साधन देना चाहिए, वहां की बंजर भूमि पर बड़े बड़े कल कारखानों को विकसित करना चाहिए, शिक्षा, चिकित्सा एवं सेवा के सशक्त संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करनी चाहिए और बड़ी बड़ी नदियों को गांवों में से पुर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण चारों दिशाओं से रेगिस्तानी इलाकों तक विस्तारित करनी चाहिए ताकि कहीं सुखा तो कहीं बाढ़ से प्रभावित प्राकृतिक आपदाओं से होने वाले जन-धन के नुक़सान को भी विकास के साथ साथ बचाया जा सकता हैं और हजारों हज़ारों गांवों को विकसित किया जा सकता हैं।
इंटरनेशनल कंपनीयों को छोटे छोटे शहरों-कस्बों में विस्थापित करने के लिए आमंत्रित करना चाहिए। गांवों में ऊर्जावान युवाशक्ति,शुद्ध जलवायु,आवास व्यवस्था, विद्यालय, चिकित्सा एवं इंडस्ट्रीज में विकासोन्मुख के अनुरूप परिवर्तन करने योग्य विशालकाय मैदान उर्वरा भूमि, तथा आवागमन की सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए आवश्यकतानुसार जमीनें न्यूनतम दामों में मिल सकती हैं और इससे अब तक विकास से अछुते हजारों छोटे गांवों-कस्बों, और छोटे-मोटे गांवों जैसे शहरों का विकास होगा,कामगारों का महानगरों की ओर पलायन कम होगा जिसके कारण क्षेत्रीय मेहनती मजदूरों के साथ भरपूर कामगारों को रोजगार के अवसर मिलेंगे। शहरों व महानगरों से एक चौथाई कम खर्चे से उत्पादन क्षमता बढ़ेगी। और छोटे-मोटे उधमियों को भी भरपूर मात्रा में नये नये कामों को विकसित करने का सहज ही अवसर प्राप्त होगा। अर्थात् सहजता से ही गरीबी व बेरोजगारी की समस्यायों पर अंकुश लगेगा।
वर्तमान में सरकारों को अपेक्षाकृत पदलोलुपता से ऊपर उठकर मानवमात्र को आत्मनिर्भर बनाने के लिए चिंतन करना चाहिए और गांव और शहरों के बीच की दूरी को मिटाना चाहिए।
अब सबसे गंभीर समस्या है डंमाडोल हो चुकी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाना। हालांकि विश्वव्यापी
शोध चल रहा है किन्तु सरलीकरण भाषा में विचार करें तो संभवतःउपरोक्त सभी समाधान कारगर हो सकते हैं किन्तु इसमें नैतिकता और प्रामाणिकता की पारदर्शिता जरुरी है।इन रुपयों को अनन्य योजनाओं में खर्च करने की बजाय सिर्फ अपने आपको आत्मनिर्भर बनाने के लिए योग्य उधमियों को विकसित करने में निवेश किया जाना चाहिए।
परोपकारी जनहित में स्वचालित नितियों में कुछ बदलाव करके “धर्म नीतिगत सिद्धांतों ” के अनुरूप ” नई औद्योगिक नीति ” व आयात निर्यात विदेश नीति को लागू किया जाना चाहिए, जिससे नई औद्योगिक कंपनियों को चालू करने के लिए आने वाले आगंतुकों को जमीन,बैंकिंग एवं समस्त विभागीय प्रक्रियाओं को एक ही छत के नीचे सरलीकरण से कम से कम समय में ओनलाइन द्वारा संपादित करने की व्यवस्था करनी चाहिए ताकि आगंतुकों को ग्रीष्मकालीन शीतकालीन अवस्थाओं में मान्यताओं के लिए इधर उधर भटकने के लिए मजबुर होकर मनोबल टुटने का मौका नहीं मिलना चाहिए जबकि उनके मनोबल को बढ़ाने में हमें स्वयं को सहायक सिद्ध करना हैं।

– छोटे-छोटे बदलाव से बहुत बड़े फायदें की संभावना::
(1) हम भ्रष्टाचार मुक्ति की और प्रस्थान करेंगे।
(2) काला बाजारी व रिश्वतखोरी की प्रवृत्ति कम होगी।
(3) भेदभाव मुक्त विकासोन्मुख योजनाऐं बनेंगी।
(4) करोड़ों दुकानदारों के परिवार खुशहाल बनेंगे।
(5) चहुंओर करोड़ों कामगारों को रोजगार मिलेगा।
(6) टैक्स प्राप्ती में श्रम व खर्चों में भारी बचत होगी।
(7) चारों और शिक्षा और योग्यता में आकर्षण बढ़ेगा।
(8) जनसंख्या वृद्धि सम्मान नीति से नियंत्रित होगी।
(9) आलस्य व व्यसन मुक्ति से गरीबी कम होगी।
(10) असाधारण बिमारियों में कमी आयेंगी।
(11) असामाजिक तत्वों को प्रश्रय कम मिलेगा।
(12) एक्सीडेंट व अकाल मृत्यु दरों में कटौती होगी ।
(13) अधिकाधिक औधौगिक ईकाईयां सफल होगी।
(14) देशी सुईं से विमान तक का निर्माण शुरू होगा।
(15) भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए आगे बढ़ेंगे।
मेरा अनुमान है कि वह ऐतिहासिक दिन भ्रष्टाचार मुक्त भारत के इतिहास का वह स्वर्णिम दिन होगा,जिस दिन ” धर्म नितीगत सिद्धांतों “के अनुरूप “नई औद्योगिक नीति” को लागू किया जाएगा। और भारत सफलतम नीतिगत “मेन्युफेक्चरिंग हब “बनकर दुनिया की आशाओं पर खरा उतरेगा और भारत स्वयं आत्मनिर्भर बनकर विश्व स्तरीय मार्केट में विश्वसनीय ब्रांडेड की पहचान बनायेगा।

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