

सबसे पहले तो मेरे परम मित्र मुलायमसिंहजी को मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि! मुलायमजी से मेरी मित्रता लगभग 55 साल पहले शुरु हुई थी। वैसे तो वे देश के सबसे बड़े प्रांत उत्तरप्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री और केंद्र में रक्षा मंत्री भी रहे। वे प्रधानमंत्री नहीं बने लेकिन उनकी गिनती राष्ट्रीय नेताओं में हुआ करती थी। उनकी समाजवादी पार्टी भी कभी अखिल भारतीय पार्टी नहीं बन पाई लेकिन उनकी ख्याति अखिल भारतीय थी।
इसके भी कई कारण थे। वे कुर्सी की राजनीति से भी ऊपर उठकर राजनीति किया करते थे। यह बताइए कि उत्तरप्रदेश के नेता को क्या पड़ी थी कि वह चलकर तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश जाए और उनके मुख्यमंत्री करूणानिधि और रामाराव से बात करे? मुलायमसिंह और मैं, हम दोनों इन मुख्यमंत्रियों से इसलिए मिलने गए थे कि ये दोनों हिंदी का डटकर विरोध कर रहे थे। हम लोग उत्तर भारत में अंग्रेजी हटाओ आंदोलन चला रहे थे। हैदराबाद में हमारे विरोध में जबर्दस्त नारे लगे और जिस कार में हम दोनों बैठे थे, भीड़ ने उसको उलटाने की कोशिश भी की। हमारे मंच पर हिंदी-विरोधी चढ़ गए, उन्होंने तोड़-फोड़ कर दी लेकिन मुलायमसिंह ज़रा भी नहीं घबराए। दोनों मुख्यमंत्रियों ने अत्यंत शिष्टतापूर्वक हमसे बात की और हमने उनके दिल में यह बात उतार दी कि हम उन पर हिंदी थोपने नहीं, तमिल और तेलुगु प्रचलित करने और अंग्रेजी हटाने के लिए आए हैं।
मुलायमजी ने मेरे भाषणों के संग्रह को पुस्तिका रूप में छपवाया एक लाख की संख्या में! उसका नाम था, ‘अंग्रेजी हटाओः क्यों और कैसे? उन्होंने उ.प्र. के शासन और प्रशासन से अंग्रेजी के दबदबे को खत्म करने की पूरी कोशिश की ताकि गरीबों, ग्रामीणों और पिछड़ों को समुचित अवसर मिल सकें। हमारे इस आंदोलन के तीन प्रेरणा-स्त्रोत थे- महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी और डाॅ. राममनोहर लोहिया। लोहियाजी के घर ही पहली बार मुलायमजी से मेरी भेंट हुई थी। उस समय तक मुलायमजी संयुक्त समाजवादी पार्टी के साधारण युवक कार्यकर्त्ता थे लेकिन इटावा के कमांडर अर्जुनसिंह भदौरिया के मार्गदर्शन में उन्होंने काफी नाम कमाया और देश के समाजवादियों के सबसे बड़े और सुदीर्घ नेता बन गए।
उन्हें लोग ‘नेताजी’ कहकर संबोधित करते थे। उनमें सफल नेतृत्व के सभी गुण थे। वे मुलायम भी थे और कठोर भी! वे मुलायम इतने थे कि अपने नौकरों से भी अपने भाइयों की तरह पेश आते थे और कठोर इतने कि उन्होंने राम मंदिर के सिलसिले में शंकराचार्य तक को गिरफ्तार कर लिया। राम मंदिर आंदोलन के खिलाफ उन्होंने जरुरत से ज्यादा सख्ती की। पूरे देश, भाजपा और संघ में रोष भी फैला लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया श्री कुप्प.सी. सुदर्शन से मिलने का आग्रह जब मैंने उनसे किया तो वे उनसे मिलने के लिए तैयार भी हो गए और सुदर्शनजी उनसे मिलकर प्रसन्न भी हुए। वे अपने विरोधियों का डटकर विरोध करते थे लेकिन उनसे संवाद करने और मुसीबत में उनकी मदद करने में भी वे बिल्कुल नहीं झिझकते थे। उनके दरवाजे मामूली से मामूली कार्यकर्ता के लिए भी सदा खुले रहते थे। किसी स्वस्थ लोकतंत्र में नेताओं का यह गुण उस तंत्र को अधिक उदार और सर्वसमावेशी बना देता है।
पहली बार जब वे मुख्यमंत्री बने तो चंद्रशेखरजी और मुझे उन्होंने मुख्य अतिथियों के तौर पर लखनऊ में एक विशाल सभा में बुलवाया। उनके मंत्री बेनीप्रसाद वर्मा के घर हम तीनों भोजन करने गए तो दोनों अतिथियों को कार में पीछे बिठाकर खुद ड्राइवर के साथ आगे जा बैठे। उनकी इस शिष्टता और विनम्रता ने करोड़ों लोगों के दिल जीत लिये थे। जब प्रधानमंत्री विश्वनाथप्रतापसिंह की सरकार गिरने लगी तो उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि मैं लखनऊ जाकर मुलायमसिंह को समर्थन के लिए कहूँ। मुलायमजी मुझसे मिलने खुद हवाई अड्डे पर आ गए लेकिन उन्होंने विश्वनाथजी के विरोध के सब तर्क मुझे शांतिपूर्वक समझाए। चंद्रशेखरजी, मुलायमजी और मैं कई समारोहों में साथ रहते थे।
मेरे कई मित्र देश के सर्वोच्च पदों पर पहुंचे लेकिन मेरा जो अनुभव मुख्यमंत्री भाई मुलायमसिंह के साथ हुआ, किसी के साथ नहीं हुआ। मद्रास के राज्यपाल भवन में हम दोनों ठहरे थे। मेरे कमरे में उनके पायलट ने कब्जा जमा लिया। मैं क्या करता? मुलायमजी मेरे पास आए और बोले हम दोनों एक ही कमरे में रहेंगे। आप पलंग पर सोइएगा और मैं नीचे दरी पर! मैं दंग रह गया। खैर, रात मैंने एक मित्र के घर बिताई। दिल्ली और लखनऊ में हम लोगों ने साथ-साथ कई बार भोजन किया। हर बार वे पहले मुझे परोसते थे। वे मांस, मछली और शराब के सेवन से मुक्त थे। यद्यपि उन्होंने पहली पत्नी के निधन के बाद दूसरा विवाह किया लेकिन उनके आचरण की शुद्धता के बारे में मैंने कभी कोई अफवाह तक नहीं सुनी।
मैं सरकारी सम्मानों और पुरस्कारों के प्रति सदा शंकालु रहता हूं। उन्हें लेने के लिए प्रायः जाता ही नहीं हूं लेकिन मुलायमसिंहजी, उनके भाई रामगोपालजी और बेटे अखिलेश ने मुझे जब-जब भी सेफई, इटावा और लखनऊ बुलाया, मैं सहर्ष गया। उन्होंने मुझे वे सम्मान भी दिए, जो देश के सर्वोच्च नेताओं और अभिनेताओं को वे देते रहे हैं लेकिन उन्होंने मुझसे एक बार भी कोई गलत बात लिखने या बोलने का आग्रह नहीं किया। जब भी मैंने उनकी किसी बात या पहले के विपरीत लिखा या बोला तो उस बात को उन्होंने नम्रतापूर्वक समझने की कोशिश की। ऐसे सहृदय प्रेमी और समझदार मित्र के महाप्रयाण पर कौन दुखी नहीं होगा?