– पर्यावरण दिवस विशेष-
इतिहास जगत में भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था! विशालकाय भारतीय धरा पर सौम्यता से सुशोभित ऊंची-ऊंची पर्वतमालाएं, चमत्कारी जड़ी बूटियां, चन्दन,शिशम आदि पेड़ पौधों से हरा भरा घना जंगल, गंगा जमुना सरस्वती त्रिवेणी की पवित्र नदियां, समन्दर,गुफाएं,मिट्टी के ऊंचे पर्वत,संगमरमर,सोने और कोयले जैसी खादानों आदि प्राकृतिक संपदाओं के अनमोल रत्नों से भरा पड़ा साम्राज्य था।
नन्दन उपवन व पर्वतमालाओं की गहन गुफाओं में साधना में लीन महातपस्वी ऋषियों-मुनियों की तपोभूमि पर महावीर, बुद्ध,राम,रहीम, ईसा मसीह, गुरुनानक,तुलसी,महाप्रज्ञ जैसे महान दार्शनिक विचारों के महापंडितों द्वारा युगपरिवर्तन मानवीय मूल्यपरक शिक्षाओं के प्रदाताओं के कारण भारत “विश्व धर्मगुरु” कहलाया।

किन्तु अपरिग्रह का अपना एक अलग ही आकर्षण होता है, जहां महापंडितों द्वारा दिया गया महिमा मंडित ज्ञान को तो मात्र अंधविश्वास के दायरे से देखा जाता हैं, वहां पर विज्ञान द्वारा किए गए विकास को ही सर्वोपरि माना जाता है। जिसके फलस्वरूप प्रकृति का दोहन व दोहन से अपार दौलत बटोरने की ऐसी लालसा जागृत होती हैं कि जहां कोई अपना पराया,मित्र,धर्म अधर्म की मौलिक मर्यादाएं सब गौण हो ही जाती हैं और वहीं से शुरू होता है प्रकृति का असंतुलन व पर्यावरण प्रवाह में अविस्मरणीय छेदन वेदन। जिसके कारण बढ़ता है रुष्ठ सृष्टि का प्रकोप।
मानव जनित जीवाणुओं के वायरस से उत्पन्न कोराना के दौरान सर्वत्र प्रकृति के मनमोहक दृश्य के दर्शनों से जन जन सतयुग के अनुरूप श्रृंगारित सृष्टि की अनुभूति से लाभान्वित हुआ।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अणुव्रत के सारगर्भित मर्मज्ञ को समझने की नितान्त अपेक्षा हैं।
अणुव्रत क्षेत्र,काल, रंग, जाति या सम्प्रदाय मुक्त धर्म हैं।

नैतिकता की पुनः प्रतिष्ठा में मानवमात्र के कल्याण हेतु अणुव्रत आंदोलन का प्रवर्तन परम श्रद्धेय पुजनीय आचार्यवर,युगप्रधान, युगपुरुष राष्ट्र संत श्री तुलसी के द्वारा सुपोषित किया गया हैं, देश की आजादी के बाद चलने वाले आन्दोलनों में से नैतिकता का दीर्घकालीन सक्रिय आन्दोलन हैं।
सर्व कल्याणार्थ स्वस्थ समाज निर्माण में अणुव्रत आचार संहिता का सिद्धान्त है – पर्यावरण शुद्धि! इसके अन्तर्गत हरे भरे पेड़ आदि नहीं काटने के लिए प्रतिबोध दिया गया है।
भौतिकवाद के चकाचौंध युग में मात्र दो शब्दों में परिपुष्ट यथार्थवादी सिद्धान्त मानव को सृष्टि के वरदान को उपेक्षित करने से पहले सृष्टि की रचना व महता को समझाने का उपक्रम है।
पर्यावरण शुद्धि के सिद्धांतों को गांवों-कस्बों से लेकर संसद के गलियारों तक पर्यावरण विज्ञ, प्रोफेसर, मंत्री, डॉक्टर, चिंतनशील प्रोफेशनल वर्ग ने युगानुकुल बताया और पर्यावरण दुषित वातावरण को मानवता के संरक्षण में प्रकृति का अंधानुकरण दोहन महाविनाशक का कारण माना गया।
आज पर्यावरण की दृष्टि से चिंतनीय विषय यह है कि दुनिया की लगभग 780 करोड़ जनता त्रासदी से पीड़ित हैं, अंधकारमय भविष्य से उभरने को लालायित हैं ऐसे महाप्रलय वातावरण में भावी पीढ़ी के उज्जवल भविष्य के लिए विश्वव्यापी सृष्टि की पुनः संरचना कैसी हो?

(१)सार्वभौम मैत्री की स्थापना हेतु अहिंसा परमोधर्म: के सिद्धांतों का अनुसरण करना चाहिए।
(२)भोगवाद संस्कृति में विनाशक प्रवृतियों के प्रत्येक पहलू पर चिंतन मंथन करना चाहिए।
(३) पदलोलुपता के बढ़ते आकर्षण में बदलाव और विकासोन्मुखी शिल्पकारों व श्रमशील व्यक्तियों के प्रति सम्मान, एवं राष्ट्रीय उत्थान में सहभागिता की उत्कृष्ट भावनाओं को जागृत करना चाहिए।
(४) अर्थ प्रधानता के दौर में विकासोन्मुख योजनाओं में विज्ञान व आध्यात्मिक समावेश नीति का अनुमोदन करना चाहिए।
(५) दुनिया में 50% बेरोजगारी बढ़ने की संभावना है! ऐसे में संयमित जीवन शैली को प्रश्रय देना चाहिए और शादी विवाह आदि मांगलिक अवसरों व धार्मिक स्थलों, सामाजिक एवं राजनीतिक आदि आयोजित कार्यक्रमों में होने वाले आडंबरों पर आगामी 10 वर्षों के लिए पूर्ण प्रतिबंध लगाना चाहिए।
(६)हमें प्राकृतिक संपदाओं की सुरक्षा के लिए उपरोक्त जीवनोपयोगी नियमों के अनुरूप नव जीवन शैली का निर्माण करना चाहिए और नशीले पदार्थों का उपयोग, कारोबार या वितरण प्रणाली से स्वयं को मुक्त रखने का प्रयास करना चाहिए।

#सृष्टि का सम्मान ही मानवता के सुख का आधार है!
#जहां अणुव्रत हैं वहां पर्यावरण शुद्ध हैं!
अणुव्रत अनुशास्ता, अहिंसा के पुजारी आचार्य श्री महाश्रमणजी आज देश-विदेश के सुदूर प्रदेशों में उत्तरांचल, पूर्वांचल से होते हुए दक्षिणांचल में अहिंसा यात्रा के माध्यम से लाखों किलोमीटर की पदयात्राएं करते हुए मानव मानव को सृष्टि की अनुप्रेक्षा में अहिंसा अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान व जीवन विज्ञान व मंत्रोच्चारों का प्रयोग एवं पर्यावरणीय मार्गदर्शन प्रदान कर मानव को उपकृत कर रहे हैं।