‘ज्ञान ज्योति जगा, ध्यान प्रभु में लगा, बेड़ा तर जाएगा
बीकानेर ( नरेश मारू)। अपने ज्ञान में वृद्धी करें, कर्म में सुधार का कार्य करें और सबके साता वेदनीय की कामना करें तथा अपने भावों को निर्मल, पवित्र एवं निश्च्छल रखने का प्रयास करें, श्री शान्त क्रान्ति जैन श्रावक संघ के युगपुरूष आचार्य प्रवर 1008 श्री विजयराज जी म.सा. ने सोमवार को बागड़ी मोहल्ला स्थित  सेठ धनराज ढढ्ढा कोटड़ी में  चल रहे चातुर्मास के दौरान  अपने नित्य प्रवचन में कर्म और ज्ञान, धर्म एवं ध्यान पर व्याख्यान देते हुए यह बात कही। महाराज साहब ने कहा कि  हमारी भारतीय संस्कृति कर्म प्रधान संस्कृति है और संसार सारा कर्म प्रधान है। कर्तव्य को  और क्रिया को भी कर्म कहा गया है।  हम जैसे कर्म या क्रिया करते हैं, वैसे ही फल की प्राप्ति होती है। अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है और बुरे कर्मों का फल बुरा होता है। जिस प्रकार आम के पेड़ से अमरूद प्राप्त नहीं हो सकता ठीक वैसे ही आप कर्म बुरा करें और फल की इच्छा अच्छे की करें, यह संभव नहीं है।  इसलिए हमेशा अच्छा करने का प्रयास करते रहना चाहिए। व्यक्ति जब किसी के बारे में अच्छा विचार रखता है तो उसके जीवन में भी अच्छा होना शुरू हो जाता है। संसार में सब साता वेदनीय चाहते हैं, असाता वेदनीय कोई नहीं चाहता है, साता मतलब आरोग्य की कामना होती है। लेकिन आरोग्य भी केवल कामना करने से नहीं मिलती है। इसके लिए कर्म करना पड़ता है। भगवान महावीर ने आरोग्य के 9 कारण बताए हैं। आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने कहा कि आप किसी को साता पहुंचाते हैं तो वह सबसे उत्तम भाव होता है। कहा भी गया है ‘सर्वे  भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दु:खभाग् भवेत।।’ सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी दु:ख का भागी ना बनना पड़े इसलिए ‘साता का दाता बनना चाहिए’ सबके साता की कामना करनी चाहिए।
आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने कहा कि संसार के सभी जीव सुखी हों, इस कामना में कोई बुराई नहीं है। ऐसा करने में कोई खर्च भी नहीं लगता है लेकिन ऐसा करने में भी हमें जोर लगता है। लाला जी से किसी ने पूछा दुखी क्यों..?, लाला जी बोले पड़ौसी सुखी क्यों है..?। आज हमारे साथ भी यही हो रहा है। हम इस परिस्थिति से गुजर रहे हैं, पड़ौसी की प्रसन्नता से हम अगर प्रसन्न रहें तो हमारे असाता वेदनीय कर्म का निदान हो जाता है। अगर हम पड़ौसी की प्रसन्नता से दुखी हैं तो फिर साता का सुख हमें कभी नहीं मिलेगा। इसलिए अपने भावों को सदैव निर्मल, पवित्र एवं निश्च्छल रखने का प्रयत्न करना चाहिए। इसका प्रभाव हमारे मन, शरीर और इच्छाओं पर पड़ता है। ज्ञानीजन भी कहते हैं, जैसे भाव वैसे प्रभाव होते हैं। इस बात का महत्व महाराज साहब ने राजा और किसान की कहानी के माध्यम से बताकर कहा कि आपके भावों का प्रभाव वातावरण पर भी पड़ता है। जहां आपके मन के भाव खराब हुए वातावरण बिगडऩा शुरू हो जाता है।
आचार्य श्री विजयराज ही महाराज साहब ने प्रवचन स्थल में मौजूद श्रावक-श्राविकाओं से कहा कि वे अपने जीवन में आदतों में परिवर्तन लाना शुरू करें, कर्म समझ में आए तो उसमें सुधार करें आदतों में परिवर्तन लाएं। नानकदेव और कूबड़ी की एक कथा के माध्यम से बताया कि जिसके शरीर में खराबी है, वो सद्कर्मों से ठीक हो सकती है लेकिन मन में खराबी हो तो उसका कोई समाधान नहीं कर सकता। यह सुधार स्वयं को ही करना पड़ता है। आचार्य श्री ने कहा कि ज्ञान के अभाव में सभी समस्याऐं पैदा होती है। इसलिए ज्ञान का प्रकाश जीवन में होना चाहिए। यह चातुर्मास ज्ञान के दीपक का प्रज्वलन करने का समय है। इसलिए ज्ञान ज्योति जलाइए, जब तक यह नहीं जलेगी तब तक मोह का अंधकार दूर नहीं होने वाला है।
श्री शान्त-क्रान्ति जैन श्रावक संघ के  अध्यक्ष विजयकुमार लोढ़ा ने बताया कि प्रवचन के विराम से पूर्व भजन सरिता बही जिसमें ‘उम्र हमको थोड़ी सी मिली थी मगर, वो भी घटने लगी देखते-देखते, ये करुं, वो करुं, कुछ ना कर सका, सांस थकने लगी देखते-देखते’ प्रेरक और भावपूर्ण  तथा ‘पधारो गुरुवर ओ श्रेष्ठ मुनिवर के आप’ और  ‘ज्ञान ज्योति जगा, ध्यान प्रभु में लगा, बेड़ा तर जाएगा, बेड़ा तर जाएगा’ प्रेरक गीतिका का संगान किया गया।  इससे पहले एकासन, उपवास और धर्मचक्र की पचकान करने वालों को आचार्य श्री  विजयराज जी महाराज ने आशीर्वाद दिया एवं मंत्र पढक़र आज्ञा प्रदान की।  गुरुभक्ति गीत एवं मंगलपाठ से सभा को विराम दिया ।