कोलकाता (प.बंगाल)। खरतर विरूद धारक जिनेश्वरसूरिजी महाराज की पाट परम्परा के वर्तमान आचार्यदेवेश आचार्यदेवश श्री जिनपीयूषसूरीश्वरजी म.सा की पावनतम निश्रा एवं मुनिराज श्री सम्यकरत्नसागर म.सा., मुनिराज श्री समर्पितरत्नसागर म.सा., मुनिराज श्री संकल्परत्नसागरजी म.सा., मुनिराज श्री संवेगरत्नसागरजी म.सा., मुनिराज श्री शौर्यरत्नसागरजी म.सा. आदि ठाणा की सानिध्यता में कालोकाता शहर में वर्षावास 2019 चल रहा है । चातुर्मास के दौरान रविवार आसोज सुदि अश्ठमी के अवसर पर जिनेश्वरसूरिजी की पाट परम्परा के वर्तमान आचार्यदेवश श्री जिनपीयूषसूरीश्वरजी म.सा म.सा. की 8 दिवसीय मौन साधना के साथ सूरि मंत्र की चतुर्थ पीठिका यक्षराज गणिपिटक की साधना जैन श्वेताम्बर दादावाड़ी प्रांगण माणिकतल्ला में प्रारम्भ हो रही है इस साधना की पूर्णाहुति षरद पूर्णिमा, 13 अक्टूबर, रविवार की महामांगलिक के साथ होगी।
सूरि मंत्र की साधना करने का प्रारम्भ करने का उचित समय श्री गौतम स्वामीजी के समय के साथ प्रारम्भ होता है।
8 दिवसीय पिठिका अनुसार साधना की जाती है । इसमें पहली साधना सरस्वती देवी की होती है। वीतराग वाणी ही सरस्वती है इसकी प्रथम आराधना की जाती है। इसी के साथ पीठिका पर गौतमस्वामी जी सहित यक्षराज, लक्ष्मीदेवी आदि देवी देवता की भी आराधना की जाती है। यह आराधना करने के बाद आचार्य भगवन्त प्रतिष्ठा अंजनशलाका आदि करते है। प्रतिमा के कान में मंत्रोच्चार करके प्राण फंुकते है। आचार्यपद प्राप्त होने के बाद आचार्य भगवन्त को सूरि मंत्र आराधना करना महत्वपूर्ण होता है। आचार्यश्री आराधना के दौरान 8 दिवस तक पूर्णकालिक मौन साधना में रहेगें। तृतीय पद पर आरुढ होने वाले आचार्यश्री को प्रतिदिन 3 घण्टे तक जाप आदि करके साधना करना पड़ती है। आचार्यश्री साधना के बल पर उर्जा प्राप्त करके समाज का उत्थान करते हुये पंच प्रस्थान की स्थापना के साथ मौन पूर्वक आराधना करेगें।
आचार्यश्री की साधना निर्विघ्न सफल हो इसके लिए श्रावक- श्राविका उपवास व आयंबिल का तप की तपस्या की जाएगी।
चन्द्रप्रकाष बी. छाजेड़ ने बताया कि जैन-परंपरानुसार विधाओं और मंत्रों का मूल विधाप्रवाद नामक दसवां पूर्व सूत्र है। श्वेताम्बर-परंपरा में प्रत्येक आचार्य भगवंत जिस सूरि यंत्र-मंत्र की आराधना करते हैं, उसके पांच प्रस्थान हैं। प्रथम तीन प्रस्थानों की अधिष्ठायिकाएं क्रमशः भगवती सरस्वती, त्रिभुवनस्वामिनी और महालक्ष्मी देवी के होने के कारण वे विधास्वरूप हैं जबकि अंतिम दो प्रस्थानों के अधिष्ठायक क्रमशः यक्षराज गणिपिटक और अनंत-लब्धिनिधान, गणधर भगवंत श्री गौतम स्वामी जी के होने के कारण वे मंत्रस्वरूप हैं ।