कोरोना की सीख -८

कोरोना के कारण लॉक डाउन ने एक देश में एक नये शिक्षा संसार की रचना प्रारम्भ कर दी है | जब मैं अपने दस साल के पोते अविर्भाव से बात करने के लिए फोन लगाता हूँ, तो जवाब मिलता है उसका ऑन लाइन स्कूल चल रहा है|देश के एक नामी स्कूल के स्टेंडर्ड ५ के छात्र अविर्भाव को सुबह ९ बजे दोपहर २ ३० बजे तक ऑन लाइन कक्षा में मौजूद रहना होता है | कई विदेशी और भारतीय विश्वविद्यालयों और स्कूलों में इस समय ऑनलाइन पढ़ाई तंत्र स्थापित करने की होड़ लगी हुई है, वस्तुत: इस तरह की व्यवस्था पूरी तरह से छात्र के ‘स्व-अनुशासन’ पर निर्भर है।


वैसे ई-लर्निंग बहुत ज्यादा कारगर सिद्ध नहीं हो पा रही है। औपचारिक शिक्षा वाला मौजूदा वृहद शिक्षा तंत्र वैसे भी ई-लर्निंग के अनुकूल नहीं है, कुछ बड़े और नामी स्कूल अपवाद हो सकते हैं, लेकिन महाविध्यालय के स्तर पर इस किस्म की पढ़ाई, चाहे विषय कला का हो या फिर विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग अथवा गणित या भारतीय अथवा कोई और दर्शन, क्यों न हो, उसकी ऑनलाइन प्रस्तुति लुभायमान लगती हो, लेकिन यह आम जिंदगी से एकदम कटी होती है| इसमें वास्तविक जिंदगी के जरूरी उपयोगी कौशल कम होते हैं और रोजमर्रा के कामों में कारगर हुनरों का स्थान नहीं होता, इसका प्रशासनिक संचालन भी बहुत केंद्रीयकृत होता है। ई-लर्निंग में अध्यापक और विद्यार्थी को नियंत्रण में रखने पर तो बहुत ज्यादा ध्यान दिया जाता है, लेकिन छात्र के बहुउपयोगी कौशल को विकसित करने की कोई तकनीक उपलब्ध नहीं है।


आज इस पद्धति से पढ़ाई के लिए जिन माध्यमों की जरूरत है, मसलन सेलफोन या टैबलेट या कंप्यूटर की उपलब्धता, उन्हें जुटाना सबके लिए आसन नहीं है, यहां तक कि इंटरनेट कनेक्टिविटी भी छोटा मसला नहीं है। भले ही हम ऑनलाइन अध्ययन को स्व-शिक्षा से जोड़ें, पर जहाँ आधे से ज्यादा भारत का भविष्य सडक पर हो वहां हम ७० बरस से चली आरही मैकॉले पद्धति और उसके इस नवीन संस्करण को पूरे देश के लिए कैसे उपयोगी मान लें ?

अब आगे हमे उन दावों से बचना होगा, जिसमें कहा जायेगा कि अमुक शिक्षक ने वेबीनार के जरिए इतनी संख्या में शिक्षण सत्र आयोजित कर डाले हैं या अमुक छात्र ने विदेशी विश्वविद्यालय से ई लर्निंग से अमुक नए अमुक विषय में डिग्री ले ली | इस दावे पर यकीन करना कि कुछ शिक्षक कोविड-१९ वैश्विक महामारी के बावजूद ई-लर्निंग के जरिए छात्रों को सफलतापूर्वक पढ़ा रहे हैं, पूरी तरह ठीक नहीं होंगे । इस तरह के वक्तव्य आशा जरूर जगाते हैं, परंतु हकीकत के धरातल पर परिलक्षित नहीं होते। ये बहुत महीन लीक पर चलते हुए ई-स्रोत सामान्य पढ़ाई की कमी में कुछ हद तक भरपाई कर देते हैं। यहां तक कि ई-परीक्षाएं भी ली जाती हैं, लेकिन कुछ विशेष प्रयोजनों पर केंद्रित रहते हुए। तथापि आज की तारीख में कोई अच्छे से झूठ बोलने वाला, चाहे वह छात्र, अध्यापक या फिर प्रशासक क्यों न हो, वही यह दावा कर सकता है कि ई-लर्निंग से सामान्य पठन-पाठन पद्धति वाली पढ़ाई की भरपाई प्रभावशाली ढंग से की जा सकती है|


इसके विपरीत यह भी सच है कि बहुत बड़ी संख्या में कामकाजी लोग जो आगे पढ़ाई जारी रखना चाहते हैं उनके लिए मौजूदा संस्थान आधारित शिक्षा व्यवस्था के साथ तालमेल बैठाना मुश्किल है। इसको जानने के लिए एक कामकाजी व्यक्ति जो सायंकालीन कॉलेज में पढ़ने जाता है, से पूछकर देखिए। वह बताएगा कि अगर दोनों काम इकट्ठे करने हों, तो इसके लिए विलक्षण प्रतिबद्धता की जरूरत है। इसके लिए स्व-अनुशासन बनाने के अलावा हाथ में लिये काम पर ध्यान केंद्रित रखना पड़ता है, और ठीक इसी वक्त रोजमर्रा की जिदंगी में पैदा होने वाली विरोधाभासी समस्याओं से जूझते हुए शिक्षा के लिए समय और ध्यान निकालना पड़ता है। ऐसे लोगों के लिए ई-लर्निंग व्यवस्था की दरकार केवल इतनी है कि विद्यार्थी अपनी सामान्य गृहस्थी में रमे रहने के बावजूद थोड़ा-सा ध्यान केंद्रित करते हुए घर से भी पढ़ाई कर सकता है, जिसका उसकी रोजाना जिंदगी के दृष्टिगोचर सरोकारों से संबंध नहीं है|

जिन्हें ज्ञानार्जन की ललक है। उनके लिए यूजीसी, एनसीईआरटी और डिस्टेंस एजुकेशन संस्थान जैसे कि इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय और एनआईओएस लंबे अर्से से ऑनलाइन व्याख्यान और पुस्तकें उपलब्ध हैं। ‘स्वयं’ नामक पोर्टल भी काफी समय से उपलब्ध है। राष्ट्रीय डिजिटल लाइब्रेरी पढ़ाई हेतु हमारे लिए बहुत बड़ा ऑनलाइन स्रोत है। परन्तु इस सबके लिए विद्यार्थी को निजी आजादी सीमित करनी पड़ती है।


आपका यह सवाल पूछना स्वभाविक है, तो बताइए क्या करें ? उतर से शायद आप सहमत हो जाएँ, मौजूदा शिक्षा वर्ष २०२० को शून्य घोषित करें और इस समय को १८३५ में मैकॉले की बदनाम सिफारिशों के एक हिस्से से उपजी शिक्षा पद्धति को बदलने में लगाये। कोई ऐसी पद्धति खोजे कि विद्यार्थी अपने स्कूल-कॉलेज या यूनिवर्सिटी से वापस तो अपने नए अनुभवों के आधार पर अध्यापकों से और ज्यादा सिखाने की मांग करे, जो राष्ट्र के लिए उपयोगी और खुद के लिए उत्पादक हो |