– प्रतिदिन -राकेश दुबे
जी हाँ ! मैं स्वीकार करता हूँ कि आज मीडिया में जो कुछ दिखाई दे रहा है उसके पीछे “ भारत के समाचार जगत से संपादक नामक संस्था का लोप होना और संपादक की कुर्सी पर प्रबन्धन के प्रतिनिधि की स्थापना है | आज जो भी विवाद मुंबई, दिल्ली, या कुछ राज्यों की राजधानी में हैं या उभरने की सम्भावना दिख रही है, उनमें पत्रकारिता का अंश न्यूनतम, टीआर पी और प्रसार की गलाकाट स्पर्धा का अंश अधिकतम है | इस अधिकतम अंश और इससे अकूत धन कमाने की लालसा के उपर न्यूनतम अंश को लेबल की तरह चिपकाया गया है |” इसी घटिया दौड़ से ही पत्रकारिता अपने कार्यालयों से निकल कर कई बार राजनीतिक दलों के कार्यालयों में जाकर पोषित होने लगती है नतीजे में समाज का अहित होता है,कुछ गिरती बनती सरकारें इसका उदहारण हैं |
ऐसी ही स्थिति में तब अखबारों पर सेंसर बैठा दिया गया था| सेंसरशिप के अलावा अखबारों और समाचार एजेंसियों को नियंत्रित करने के लिए सरकार ने नया कानून बनाया| इसके जरिए आपत्तिजनक सामग्री के प्रकाशन पर रोक लगाने की व्यवस्था की गई| इस कानून का समर्थन करते हुए तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने कहा कि इसके जरिए संपादकों की स्वतंत्रता की ‘समस्या’ का हल हो जाएगा| आज सोशल मीडिया पर लिखने की स्वतंत्रता का दुरूपयोग हो रहा है | कभी सोचा आपने ऐसा क्यों ? कारण वही संपादक संस्था का लोप | मीडिया में प्रकाशन के लिए अब सिर्फ वही सामग्री स्वीकार होती है जिससे प्रबन्धन को लाभ हो | दर्शक, पाठक और समाज से किसी को कोई मतलब नहीं है |
आज स्थिति लगभग वैसी ही होती दिख रही है | सरकारें और राजनीति जो खेल देश में खेल रही है उसके दुष्परिणाम भारतीय समाज को भोगना होंगे | मीडिया का वर्तमान स्वरूप और सोशल मीडिया का अनियंत्रित रूप पर, एक दिन समाज पत्रकारों को सामने खड़ा करके सवाल पूछेगा | उस दिन यह इकबालिया बयान सनद बनेगा कि “ देश से संपादक संस्था विलुप्त थी |” मैं और मेरे जैसे कलमकारों के हाथ बंधे थे |