बीकानेर /‘‘कब तक और छीलता रहूं अपने को..’’ डाॅ. आचार्य के
एकल काव्यपाठ में बही भाव सरिताएं

‘‘ कब तक और
छीलता रहूँ अपने को
लफ्ज – दर – लफ्ज
रचता हुआ अपनी मृत्यु
कविता में
कविता प्रेम है क्या
छिल कर रन्दे से जिस के
छिलका-दर-छिलका
बिखरना है रचना खुद को। ’’
इस प्रकार की काव्य पंक्तियों के माध्यम से अपने को निरंतर परिष्कृत करने के भावों की अनुभूति कर शहर के साहित्यकार, नाटककार, रंगकर्मी एवं संस्कृतिकर्मी आदि सुधिजन डाॅ.नन्द किशोर आचार्य की लेखनी एवं सटीक अभिव्यक्ति भाव विभोर हो गए।
अवसर था – साहित्य एवं सृजन को समर्पित संस्था प्रज्ञा परिवृत्त, बीकानेर द्वारा आयोजित केन्द्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली की ओर से राज्य में पहली बार हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में सर्वोच्च सम्मान प्राप्त करने वाले साहित्य जगत के शलाका पुरूष, कवि-चिंतक डाॅ. नन्द किशोर आचार्य के एकल काव्यपाठ का। स्थानीय अजित फाउण्डेशन सभागार में आयोजित इस एकल काव्यपाठ में डाॅ. आचार्य ने अपने पुरस्कृत काव्य संग्रह ‘छीलते हुए अपने को’ में से एवं अपनी अन्य चुनिंदा कविताओं का अपनी चिर-परिचित काव्यशैली में पाठ किया। प्रज्ञा परिवृत्त की ओर उपस्थित सभी सुधिजन ने बीकानेर शहर को यह सम्मान दिलाने के लिए डाॅ.आचार्य के प्रति गहरा आभार व्यक्त किया।

काव्यपाठ के प्रारंभ में प्रज्ञा परिवृत के संयोजक डाॅ. श्रीलाल मोहता ने आगंतुकों का स्वागत करते हुए डाॅ. आचार्य के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला।
इसी क्रम में प्रज्ञा परिवृत की ओर से सरल विशारद, कैलाश भारद्वाज, ओमसोनी, अनिल गुप्ता, सन्नू हर्ष आदि ने डाॅ. आचार्य को शाॅल एवं पुष्पगुच्छ भेंट कर उनका स्वागत किया।
काव्यपाठ करते हुए डाॅ. आचार्य ने पुरष्कृत काव्य संग्रह ‘छीलते हुए अपने को’ में से
अर्थ प्रेम का
किसी शब्दकोश ने नहीं बताया
अर्थ प्रेम का
जिस से भी पूछा –
कर दिया इंगित तुम्हारी ओर
पूछा जब तुम से
गुमसुम बैठी तुम
खिलखिलाती हुई हो गयी हो
गुम
कहीं जिज्ञासा में मेरी।
विसर्जन
इतनी आवाजों के बीच
सुन लेता हूँ मैं
उस चिड़िया की आवास
जो चुप है
मेरे गीत की चुप को
गाती हुई अपने में
प्यार है
एक चुप का दूसरी चुप से
विसर्जन-
प्यार है कविता बस इसलिए।

जैसी कविताओं से जहां डाॅ. आचार्य ने जहां निश्छल प्रेम एवं करूणा के भाव जगाए वहीं

फर्क
वीरानी हो चाहे
पर फर्क हैं दोनों
एक जो नहीं हुई
बस्ती
एक जो बस कर
उजड़ गयी।

जैसी कविताओं के माध्यम से अपने पूर्व कवि-शायरों मीर, गालिब, मौलाना रूम आदि से काव्यात्मक एवं अभिव्यंजनात्मक संवाद भी स्थापित किया।

डाॅ. आचार्य ने अपने काव्यपाठ का आरंभ बांसूरी और मोर पांख, पत्थर क्या नींव से भी परदर्शी हाता है, आए तुम, था किसका अधुरापन एवं मुखौटा, भाषा से प्रार्थना, कुछ भी तो नहीं ठीक से हुआ आदि शीर्षक कविताओं से करते हुए श्रोताओं को अपनी काव्यसृष्टि की प्रभावी एवं सार्थक अनुभूति कराई।
डाॅ. आचार्य ने जब अपनी कविता
खुद भाषा ही
स्वयं को हर जगह
जो प्रथम रखते हैं
उत्तम क्या
मध्यम भी नहीं होते
उत्तम की शर्त
अन्य को प्रथम रखना है
खुद भाषा ही
बतला देती है हमें –
सुन पायंे केवल
भाषा को यदि हम

के माध्यम से खरी-खरी काव्याभिव्यक्ति की तब सदन ने करतल ध्वनि से उनकी अनुभूति के स्तर और सटीक लेखनी की खूब प्रशंसा की।
इसी क्रम में डाॅ. आचार्य ने क्या करे कवि, दृश्य, स्मृति, सिहरता है काल, आदि कविताओं के साथ अपनी बाती, चेतावनी, दिवानगी, गूंगा हो जाना, सफर का घर एवं क्षमाप्रार्थी जैसी शीर्षक कविताओं से आज के काव्य पाठ को चिरस्मरणीय बना दिया।
काव्यपाठ के अंत में प्रकाशक दीपचंद सांखला द्वारा आगंतुकों के प्रति संस्था की ओर से आभार व्यक्त किया गया।