

_अंतर्मन की उमंग भक्ति है- आचार्य
_धार्मिक प्रतियोगिता विजय प्रीमियर लीग का फाइनल मुकाबला एवं सामूहिक एकासन का हुआ आयोजन
बीकानेर। श्री शान्त क्रान्ति जैन श्रावक संघ के 1008 आचार्य श्री विजयराज जी म.सा. ने सेठ धनराज ढ़ढ्ढा की कोटड़ी में रविवार को साता वेदनीय कर्म के नौंवे बोल भक्ति में रमण करता जीव साता वेदनीय कर्म का बंध करता है के विषय भक्ति का दूसरा रूप गुरु भक्ति पर अपना व्याख्यान दिया। महाराज साहब ने कहा कि अंतर्मन की उमंग भक्ति है। जो जीवन में रंग भर देती है और जीवन जीने का ढग़ बदल देती है। भक्ति के अनेक रूप हैं। इसमें एक रूप माता-पिता की सेवा और दूसरा गुरु भक्ति है। गुरु भक्ति हमारे जीवन का बड़ा उजला पक्ष है। महाराज साहब ने श्रावक-श्राविकाओं को संबोधित करते हुए कहा कि बंधुओं- संसार में बिना गुरु जीवन शुरू नहीं होता, गुरु लौकिक भी हो सकता है और लोकोत्तर भी होता है। लौकिक गुुरु का जीवन में हम पर बड़ा उपकार रहता है। जिन्होंने हमें अक्षर ज्ञान दिया, सिखाया, पढ़ाया, योग्य बनाया, उनके लिए हमारे अंतर्मन में उमंग होनी चाहिए। लौकिक ओर लोकोत्तर गुरु हमारे जीवन के आर्ट ऑफ लाइफ होते हैं। ऐसे गुरुओं के प्रति मन में सदा आस्था का भाव रहना चाहिए। आचार्य श्री ने कहा कि शिष्य रोगी के जैसा होता है और गुरु उसका चिकित्सक होता है। गुरु उसे साधना की औषधी देकर स्वस्थ करते हैं। इसलिए गुरु का स्थान भारतीय संस्कृति में ऊंचा स्थान रहा है। जो शिष्य गुरु का होकर रहता है, उसे गुरु अदृश्य शक्ति प्रदान करता है। हमारे भीतर में गुरु की शक्ति ही है जो भक्ति के रूप में हमें प्राप्त हो रही है।
आचार्य श्री ने फरमाया कि गुरु भक्ति उमंग है। जिसके भीतर उमंग होती है, उसे गुरु की शिक्षा प्राप्त होती है। जिसे शिक्षा प्राप्त हो जाती है, वह जीवन में आनन्द और उल्लास की प्राप्ति करता है। जीवन में जितनी गहरी भक्ति होती है, उतना ही बड़ा जागरण जीवन में होता है।
एकलव्य का दिया उदाहरण
आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने गुरु द्रोणाचार्य और उनके शिष्य एकलव्य का उदाहरण देकर बताया कि गुरु द्रोणाचार्य ने उसे शिक्षा नहीं दी, बल्कि उपेक्षा ही की थी। लेकिन एकलव्य के मन में उनके प्रति भक्ति थी, उसने उन्हें गुरु मानकर पूजा की और धर्नुविद्या सीखी थी। जब द्रोणाचार्य को ज्ञात हुआ तो उन्होंने दक्षिणा में एकलव्य से अंगुठा मांगा। एकलव्य ने एक क्षण भी विचार नहीं किया और दांए हाथ का अंगूठा काट कर उनके चरणों में अर्पित कर दिया। महाराज साहब ने कहा कि गुरु की उपेक्षा और उसके बाद भी इतना बड़ा समर्पण, यह इतिहास प्रसिद्ध घटना बनी, इससे इतिहास हमें क्या शिक्षा देता है..?, गुरु भक्ति हो तो एकलव्य जैसी, इसका मूल सार बंधुओ यह है कि हमें हमारे भीतर गुरु की भक्ति का भाव रखना चाहिए।
तीन तरह के भक्त
आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने बताया कि तीन तरह के भक्त होते हैं। एक वह जो भगवान से मांगने वाला होता है, वह भक्त भिखारी होता है। दूसरा जो भगवान को मानता है, वह भक्त पूजारी और संत होता है। तीसरा भक्त होता है वह भगवान की मानने वाला होता है। ऐसा भक्त सदाचारी होता है। हमें ऐसा ही भक्त बनना चाहिए जो भगवान को माने भी और भगवान की माने भी, जो शिष्य गुरु की मानते हैं, वह विनीत और सदाचारी शिष्य होते हैं। महाराज साहब ने एक अन्य प्रसंग के माध्यम से सच्चे श्रावक शिष्य का ललीन और गुरु हरिभद्रसुरि का प्रसंग सुनाकर गुरु के प्रति भक्ति रखने वाले श्रावक का उदाहरण प्रस्तुत किया। गुरु करता गुरु का निर्माण
आचार्य श्री ने बताया कि गुरु कभी शिष्य का निर्माण नहीं करता, गुरु तो स्वयं गुरु बनाता है। जो सुशिष्य होता है, वह एक दिन अच्छा गुरु भी होता है। कोई भी गुरु शिष्य को कभी गलत आज्ञा नहीं देते हैं, सदाचारी शिष्य, विनित शिष्य गुरु की हर आज्ञा को मानता है, पालन करता है। अमरमुनि का जिक्र करते हुए महाराज साहब ने कहा कि उन्होंने बहुत ही अच्छी बात कही कि गुरु शिष्य नहीं बनाता बल्कि गुरु बनाता है। इसलिए गुरु की आज्ञा का पालन करना चाहिए। गुरु की वंदना करने से कुछ नहीं होता, गुरु का ख्याल भी रखना चाहिए। विनीत शिष्य ही वही है जो बगैर गुरु के कहे उनके मन की बात को जान ले वही शिष्य सच्चा और अच्छा शिष्य होता है।
धर्मगुरु का जीवन में बड़ा उपकार
धर्म गुरु, धर्म की दिशा और दृष्टि देते हैं। धर्म गुरुओं का जीवन में बहुत बड़ा उपकार होता है। हमें उनके प्रति श्रद्धाभाव, समर्पण भाव रखना चाहिए। धर्म गुरु जीवन में नहीं होते तो सकारात्मकता नहीं आती, इसलिए हमें धर्मगुरु की आज्ञा में तत्पर रहना चाहिए।