भारत के संविधान में न्यायपालिका सर्वोच्च है । सरकार का रवैया इस सर्वोच्चता के प्रति उदासीन है । उदहारण के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति में होती लेतलाली है ।अब उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में देरी के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को आड़े हाथों लिया है।देश के २५ उच्च न्यायालयों में १०८० जज होने चाहिए, किंतु अभी ४१७ पद खाली हैं। सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश एसए बोबड़े और न्यायाधीश द्वय संजय किशन कौल एवं संजीव खन्ना की खंडपीठ ने क्षोभ व्यक्त करते हुए कहा है कि उच्च न्यायालयों द्वारा प्रस्तावित १०३ नाम केंद्र सरकार के पास विचाराधीन हैं।
सर्वोच्च अदालत ने यह भी रेखांकित किया है कि सरकार के पास सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम द्वारा भेजे गये नाम डेढ़ साल से लंबित हैं। जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया तथा नामों पर निश्चित समयावधि में निर्णय को लेकर सरकार और अदालत में टकराव की स्थिति पैदा होती रही है।अक्तूबर, २०१५ में सर्वोच्च न्यायालय ने २०१३ के उस संवैधानिक संशोधन को असंवैधानिक करार रद्द कर दिया था, जिसमें कॉलेजियम की जगह एक राष्ट्रीय आयोग बनाने का प्रावधान था।सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश और चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों का कॉलेजियम भी विवादों से अछूता नहीं रहा है तथा न्यायाधीशों की कुछ नियुक्तियों एवं स्थानांतरण पर प्रश्नचिह्न लगते रहे हैं।पिछले वर्षों में न्यायपालिका ने बड़ी संख्या में मामले के लंबित होने की समस्या के समाधान के लिए अधिक और शीघ्र नियुक्ति के लिए अनेक बार सरकार से आग्रह किया है।आकलनों की मानें, तो जिला स्तर की अदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक करीब पांच करोड़ मामलों लंबित हैं ।
उच्च न्यायालयों में विचाराधीन मामलों की संख्या पचास लाख से अधिक है, जिनमें से १० लाख मामले १० सालों से अधिक समय से और दो लाख मामले २० सालों से अधिक समय से लटके पड़े हैं| लगभग ४५ हजार मामले तो तीन दशकों से भी अधिक समय से निर्णय की प्रतीक्षा में हैं।देश के उच्च न्यायालयों में १० लाख ऐसे मामले तो अकेले २०१९ में बढ़े हैं।न्यायिक प्रणाली का एक सूत्र है कि अगर न्याय में देरी होती है, तो वह न्याय नहीं है| आंकड़े इंगित करते हैं कि न्याय व्यवस्था की गति लगातार धीमी होती जाती है।हमारे देश की बड़ी आबादी गरीब, वंचित और निम्न आयवर्ग से है. अदालतों में देरी का सबसे ज्यादा खामियाजा उन्हें ही भुगतना पड़ता है।सर्वोच्च न्यायालय और केंद्र सरकार को नियुक्ति प्रक्रिया की निर्धारित अवधि के भीतर प्रस्तावित नामों पर निर्णय लेने का प्रयास करना चाहिए। नियुक्ति के लिए जिन लोगों के नामों की सिफारिश होती है, उन्हें भी देरी की वजह से अनिश्चितता का सामना करना पड़ता है।उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की समुचित संख्या सुनिश्चित करने के साथ अधीनस्थ अदालतों की स्थिति का संज्ञान भी केंद्र व राज्य सरकारों तथा सर्वोच्च न्यायालय को लेना चाहिए. जिला अदालतों में साढ़े तीन करोड़ मामले लंबित हैं।जजों के अलावा कार्मिकों की कम संख्या और संसाधनों की कमी पर भी प्राथमिकता से ध्यान दिया जाना चाहिए।सरकार और सर्वोच्च न्यायालय दोनों को इस विषय पर फौरन कुछ करना चाहिए।