गैर-अभिजात वर्ग के अभिभावक आम तौर पर चाहते हैं कि उनके बच्चे एमए या पीएचडी की बजाय स्कूल शिक्षक, या बैंक अधिकारी बन जाएं।
कुलीन संस्थानों में फीस यदि काफी अधिक हो जाए, तो गैर-अभिजात वर्ग इन संस्थानों को तरजीह नहीं देगा। कम धन वाले विकल्पों के लिए समझौता करने की प्रवृत्ति कई गुना बढ़ जाएगी। यही सबसे बड़ा कारण है कि कुलीन विश्वविद्यालयों में अलग-अलग शुल्क संरचना का विरोध किया जाना चाहिए। कम शुल्क वाला संसाधन संपन्न सार्वजनिक विश्वविद्यालय भी जरूरी है। ऐसे संस्थान गैर-अभिजात वर्ग के छात्रों को बहुत विशेषाधिकार प्राप्त पृष्ठभूमि से आए छात्रों के साथ रहने और प्रतिस्पद्र्धा करने का मौका देते हैं। इस प्रक्रिया में दोनों तरह के छात्र एक-दूसरे से सीखते हैं।
देश की वर्तमान संरचना के मुताबिक जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे संस्थान देश के संभ्रांत स्थान हैं, लेकिन ये देश में सामाजिक अभिजात वर्ग की अगली पीढ़ी में समानता को बढ़ावा देने के सबसे बडे़ सूत्रधार भी हैं।
लोकतंत्र में गहराई लाने और न्यायप्रियता को मजबूत बनाने के लिए ये आवश्यक हैं। अगर यह सब कुछ राजकोषीय बचत में से कुछ सौ करोड़ रुपये खर्च करके भी हासिल हो जाए, तो कतई बुरा नहीं है। यहां यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि जेएनयू में प्रस्तावित फीस वृद्धि कर दी जाए, तब भी इसका खर्च नहीं निकाला जा सकता। यदि इस विश्वविद्यालय का खर्च फीस से ही निकालना है, तो फीस की मात्रा लाखों रुपये में चली जाएगी।
वैसे जेएनयू छात्रों की हरेक बात और मांग से हमेशा सहमत नहीं होना चाहिए, लेकिन अगर वे लोकतांत्रिक और अहिंसक ढंग से अपनी मांग रखते हैं, तो उन्हें अपनी बातें कहने का पूरा अधिकार होना चाहिए। रविवार को जेएनयू छात्रों के साथ जिस तरह का व्यवहार किया गया है, वह इस बात का प्रमाण है कि हम एक ऐसे युग में रह रहे हैं, जहां शिक्षण संस्थानों में वैचारिक मतभेदों को पाशविक बल से कुचल दिया जाएगा। एक ऐसा समाज, जिसके विश्वविद्यालयों के खिलाफ हिंसा होती है, केवल अपने भविष्य के विनाश के लिए तैयार होता है।