– प्रतिदिन। -राकेश दुबे
बड़ी मुश्किल से समाज का यह मिथक टूटने लगा है कि जिस महिला का पति परिवार के योगक्षेम की सुचारू व्यवस्था करता हो उसे नौकरी के लिए घर से बाहर निकलने की जरूरत नहीं है | इसके विपरीत कई बार महिलाओं को अपने की कैरियर कुर्बानी परिवार संभालने के लिए देना होती है । आजकल परित्यक्त महिलाओं की संख्या में भी बढ़ोतरी हो रही है ।परिवार और बच्चों के साथ घर की जिम्मेदारी का बोझ ढोनेवाली महिलाएं अक्सर प्रवीण और श्रेष्ठ कार्यबल का हिस्सा बनने से वंचित रह जाती हैं। अक्सर यह विषय पर चर्चा में महिलाओं का नकारात्मक चित्रण ही किया जाता रहा है ।
परित्यक्त महिलाओं को मांग के अनुरूप नये कौशल को प्राप्त करने लिए उन्हें कई बार दोबारा प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है, जो उम्र के किसी पड़ाव पर आसान नहीं होता है। यही वजह है कि वर्षों के अंतराल के बाद उम्रदराज महिलाएं बामुश्किल ही दोबाराअपने उस कामकाज का हिस्सा बन पाती हैं, परित्यक्त महिलाओं के साथ अपराधों की भी अपनी कहानी है। इन्हीं वजहों से कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी सीमित होती जाती है।सर्वोच्च न्यायालय का यह कथन अब नजीर हो गया है कि परित्यक्ता पत्नी के साथ रहनेवाले बच्चों की पढ़ाई के खर्च का भी कुटुंब अदालतों द्वारा संज्ञान लिया जाये।
न्यायालय ने यह भी कहा है कि अगर पत्नी की पर्याप्त आमदनी है, तो बच्चों की पढ़ाई का खर्च दोनों पक्षों में अनुपातिक तौर पर साझा होना चाहिए। यद्यपि हिंदू विवाह अधिनियम और महिलाओं की घरेलू हिंसा से सुरक्षा अधिनियम गुजारा-भत्ता प्रदान करने की तारीख को तय नहीं करता है, यह पूरी तरह से कुटुंब अदालतों पर निर्भर होता है।
इसके लिए न्यायालय का निर्देश है कि परित्यक्ता द्वारा अदालत में याचिका दाखिल करने की तिथि से गुजारा-भत्ता दिया जाना चाहिए।इसका भुगतान नहीं करने पर पति की गिरफ्तारी और संपत्तियों को जब्त भी किया जा सकता है. हालांकि, निर्वाह भत्ते की आस में तमाम याचिकाएं अदालतों में वर्षों से लंबित हैं।