बीकानेर, । भारतीय ज्ञान परम्परा संधान के लिए समर्पित संस्था “प्रसादौत”, बीकानेर की तरफ से प्रदेश ही नहीं देश के महान विद्वान, चिंतक, शिक्षाविद् एवं शोधअध्येता कीर्तिशेष डॉ. देवीप्रसाद गुप्त की प्रथम पुण्यतिथि पर अध्यक्षीय उद्बोधन देते हुए ख्यातनाम कवि-आलोचक सरल विशारद ने कहा इस श्रद्धांजलि समारोह में हर तबके के लोग इकट्ठे हैं इससे यह साबित होता है कि देवीप्रसादजी गुप्त का व्यक्तित्व कितना विशाल था । उन्होनें कइयों को शोध कार्य करवाए । विशारद ने कहा- माला पहनो तो देवीप्रसाद गुप्त की तरह पहनो, अध्यक्षता करो तो देवीप्रसाद गुप्त की तरह करो । मुख्य अतिथि ख्यातनाम इतिहासविद् डॉ. शिवकुमार भनोत ने अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा – हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता । प्रत्यक्ष को प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं होती । मुझे परम् सौभाग्य मिला उनके सानिंध्य का । वे बहुआयामी व्यक्तित्व थे । उनसे मुझे एक प्रवाह प्राप्त हुआ । वे एकदम शांत मानवतावादी व्यक्ति थे । वे जितने कठिन दिखते उतने सरल थे । उनके प्रयासों से बीकानेर के रचनाकारों को पाठ्यक्रम में स्थान मिला । पिता और गुरु यह चाहते हैं कि उनका शिष्य उनसे आगे बढ़े । यही भाव आदरणीय गुरुजी के सभी शिष्यों के लिए थे । में अपने हृदय के गहन तल से उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ ।
स्वागत उद्बोधन देते हुए डॉ. उमाकांत गुप्त ने अपने संस्मरण साझा करते हुए बताया कि वे ईश्वर के परम भक्त थे, सत्य पर अडिग रहने वाले, जड़ को चेतनता प्रदान करने वाले पिता श्री के आशीर्वाद से ही जीवन में मैं आगे बढ़ रहा हूँ । गुप्तजी ने डिंगल का नाम राजस्थानी करवाया । इस अवसर पर डॉ गुप्त के व्यक्तित्व-कृतित्व पर वरिष्ठ कवयित्री डॉ. रेणुका व्यास ने पत्र वाचन में बताया कि हिंदी साहित्य में शोध कराने वाले निदेशक देवीप्रसाद गुप्त का जन्म 11 अगस्त 1926 को जयपुर में हुआ । बहुत सीमित संसाधनों से उनकी जीवन यात्रा प्रारंभ हुई । जिन्होनें हिंदी साहित्य में अनेकों शोधार्थियों को मार्गदर्शन दिया । जो बाहर से कठोर एवं भीतर से नर्म दिल व्यक्तित्व थे । समाजसेवी नन्दकिशोर सोलंकी ने कहा कि मेरे व्यक्तिगत जीवन में गुप्तजी का बड़ा योगदान रहा, में उनका ऋणि हूँ । देवीप्रसादजी संस्कृत के उद्भट विद्वान थे, शिव उपासक थे । उनकी प्रेरणा से मैने ऊंचाइयां प्राप्त की । डॉ. वेद शर्मा ने कहा गुप्तजी का रुझान शिक्षा और अध्यात्म के प्रति रहा। डॉ. सोमनाथ पुरोहित ने कहा देवीप्रसाद गुप्त मेरे पितातुल्य थे। एम. ए., एल.एल. बी. और पी.एच.डी. उच्च शिक्षाविद जिन्होंने हिंदी साहित्य में कई शोधार्थियों को मार्गदर्शन दिया । डॉ. चेतना आचार्य ने उनके पढ़ाने की सख्त शैली का बखान करते हुए बताया कि गुप्तजी स्वयं संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी, पंजाबी, राजस्थानी, ब्रज आदि सात भाषाओं के ज्ञानी थे । जिन्होनें काम को ही पूजा माना । उनके मार्ग निर्देशन में मैंने शोध कार्य पूरा किया, वे सहज सरल मग़र कार्य के प्रति कठोर गुरु थे । डॉ. कामिनी गुप्ता ने अपने दादाजी के संस्मरण सुनाते हुए कहा कि आज का दिन मेरे स्मृति पटल को स्पर्श करता है मेरे बाऊजी, मेरे गुरू जिनका असीम स्नेह मुझे मिला। उनकी सीख और ज्ञान जो विषयगत, वस्तुगत, जीवन परक और वास्तविकता से भरा पूरा था जिनसे मुझे जीवन जीने की सीख मिली । वे साहित्य के विद्वान एवं ग्रन्थों के ज्ञाता थे। पत्रकार, साहित्य अकादमी के सदस्य मधु आचार्य आशावादी ने गुप्तजी की 1979 की संवेदनशीलता के दो पक्ष रखे । साहित्यकार राजेन्द्र जोशी नेक्षमा मांगते हुए बताया कि मैंने उनका कहा नहीं माना । उन्होनें मझसे कहा कि तुम एम.ए. हिंदी में करो तो तुम्हे सोने का कड़ा मिलेगा मग़र मैंने इतिहास विषय लिया । डॉ. मुकुंद नारायण पुरोहित, डॉ. प्रभा भार्गव, अब्दुल शकुर सिसोदिया, डॉ. आशा भार्गव, ने शोध पर अपने संस्मरण विस्तार से साझा किए । संचालन करते हुए साहित्यकार कमल रँगा ने भी अपने संस्मरण साझा किए। “प्रसादौत” कार्यक्रम माताजी सरला देवी के सानिंद्य में सम्पन्न हुआ । जयकांत गुप्त ने सभी के प्रति आभार ज्ञापित किया । अंत मे सभी ने खड़े रहकर दो मिनट का मौन रखकर श्रद्धासुमन अर्पित किए । श्रद्धांजलि सभा में चन्द्रशेखर जोशी, के. के. अग्रवाल, ब्रजरतन जोशी, रजनी गुप्ता, करिश्मा गुप्ता, निर्मला अग्रवाल, संजय पुरोहित, राजाराम स्वर्णकार, आत्माराम भाटी, ऋषिकुमार अग्रवाल, इंजी. कासिम अली, अरुणा भार्गव, दीपचंद सांखला, डॉ.गौरीशंकर प्रजापत, के.के.शर्मा, कासिम बीकानेरी ने स्व. देवीप्रसाद गुप्त के चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित की ।