“नोमुरा” एशिया का वित्त विषय का अध्ययन करने वाला बड़ा संस्थान है | उसका भारतीय वित्त वर्ष २०२०-२१ पर आकलन ‘पूत के पांव पालने’ में दिखने जैसा है| हालात भी कह रहे हैं कि यह वर्ष हाल के दशकों का सबसे कठिन वर्ष साबित होने वाला है। शेष विश्व के साथ भारत भी कोविड-१९ के प्रसार को रोकने के लिए संघर्ष कर रहा है। इसके अपने आर्थिक निहितार्थ हैं। हालांकि यह आकलन कर पाना मुश्किल है कि इससे कितना नुकसान होने वाला है। यदि लॉकडाउन निर्धारित समय पर समाप्त भी हो जाता है तो भी आर्थिक गतिविधियों में सुधार होने में वक्त लगेगा। सच तो यह है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था गहरी मंदी की शिकार हो रही है और इससे भारत की राह और मुश्किल होगी।
यह कमजोरी सरकार की वित्तीय व्यवस्था पर भारी दबाव पैदा करेगी। अब तो सरकार को विभिन्न स्तरों पर व्यापक हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है, जिससे इस महामारी के कारण होने वाले नुकसान को कम किया जा सके। सरकार ने आबादी के सबसे वंचित तबके के लिए पैकेज की घोषणा कर दी है करना भी चाहिए थी | अब सरकार को आम नागरिकों और कारोबारी जगत पर दबाव कम करने के लिए काफी कुछ और करना है।
भारतीय रिजर्व बैंक ने भी कुछ कदम उठाए हैं। इसमें नीतिगत दरों में अहम कटौती, व्यवस्था में नकदी डालना और ब्याज भुगतान को आगे बढ़ाना शामिल है, परंतु शायद कारोबारी जगत की रक्षा के लिए इतना पर्याप्त न हो, वैसे भी कारोबारी गत के लक्ष्य हमेशा से खुद के अपने होते हैं । सरकार को अब छोटे और मझोले उपक्रमों के बचाव के लिएन कोई नीति निर्धारित करना होगी । वैसे भी अब समग्र कारोबारी जगत को सरकार की मदद की भी आवश्यकता होगी। अभी तो यह लगता है कि कई कंपनियां बंद हो जाएं और कर्जदार बुरी तरह प्रभावित हों। दिवालिया और नकदी प्रवाह की समस्या बैंकिंग क्षेत्र में परिसंपत्ति गुणवत्ता को प्रभावित कर सकती है। इसके लिए पूंजी डालने की आवश्यकता पड़ सकती है। केंद्रीय बैंक और सरकार दोनों को नुकसान को सीमित करने के लिए सतर्क रहना होगा।
यह नीतिगत हस्तक्षेप यह भी तय करेंगें कि लॉकडाउन सामान्य होने के बाद वित्तीय हालात कितनी जल्दी सामान्य होते हैं। वित्तीय समस्याएं, दिवालिया मामले और बेरोजगारी में बढ़ोतरी के कारण समस्या काफी बढ़ जाएगी।जो उद्ध्योग और सरकार ओनो के लिए परेशानी का सबब है |