डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज इंदौर के एक अखबार में मैंने खबर पढ़ी कि कोयंबटूर के त्रिपुर नाम के कस्बे में 15 लाख लोग रहते हैं और उनमें से एक भी आदमी बेकार नहीं है। हर आदमी काम पर लगा हुआ है और उसकी आमदनी कम से कम 15 हजार रु. महिना है। हर साल उनकी आमदनी में 10 से 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी होती है। इस शहर में कपड़ा बुनने की छोटी-बड़ी पांच लाख ईकाइयां हैं। 70-80 साल का आदमी भी अपनी शक्ति के मुताबिक यहां रोज काम करता है।

इसीलिए ये व्यस्त लोग बीमार भी कम पड़ते हैं और प्रसन्न रहते हैं। यह शहर तमिलनाडु में है लेकिन इसमें 70 प्रतिशत लोग उप्र, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, असम, मप्र, राजस्थान जैसे प्रांतों के हैं। रोजगार के हिसाब से यह त्रिपुर शहर आदर्श शहर है। भारत के हर छोटे-मोटे शहर अब से दो सौ साल पहले ऐसे ही थे। इसीलिए भारत में बेरोजगारी नहीं थी और भारत का विदेश व्यापार दुनिया का 30 प्रतिशत था। भारत के बने कपड़ों का इंतजार रोम की सुंदरियां करती रहती थीं, उसका बहुत रोमांचक वर्णन मैंने इतिहास की किताबों में पढ़ा है। इसी इतिहास को दोहराने का संकल्प है, महान संत आचार्य विद्यासागरजी का। विद्यासागरजी की प्रेरणा से शिक्षा और रोजगार के अनेक प्रकल्प शुरु हो गए हैं।

अमेरिका में पढ़े हुए कुछ जैन नौजवानों ने ‘श्रमदान’ नामक ब्रांड के अंतर्गत हाथ से बुने कपड़े बनाने शुरु किए हैं। कल इंदौर से सवा सौ किमी दूर स्थित नेमावर में आचार्य विद्यासागरजी ने पहले मेरा व्याख्यान करवाया और फिर मुझे इन लड़कों के बनाए हुए धोती, कुर्त्ते और बंडी भेंट की। इन्हें देखकर मैं दंग रह गया। इनकी बनावट और सुंदरता की तुलना भारत की किसी भी विख्यात कंपनी के कपड़ों से कीजिए, ये उनसे बेहतर साबित होंगे। इनकी कीमतें भी उनकी तुलना में आधी या एक-चौथाई हैं। अब मैंने संकल्प किया है कि मैं हाथ से बने कपड़े ही खरीदूंगा। यदि देश के करोड़ों लोग ऐसा संकल्प कर लें तो बेरोजगारी की समस्या अपने आप हल हो जाएगी और भारत अरबों रुपए निर्यात से कमाएगा। हमारे नेता और नौकरशाह विदेशी पूंजी की तलुवे चाटने में जितनी शक्ति बर्बाद कर रहे हैं, उसके मुकाबले ऐसे कामों पर ध्यान दें तो भारत अपने पड़ौसी देशों के लिए भी एक मिसाल बन सकता है।