-:सांप को दूध पिलाने की कहावत भरतपुर के तत्कालीन डीआईजी लक्ष्मण गौड़ पर पूरी तरह चरितार्थ होती है ।
-:जिस व्यक्ति को अपना हितेषी समझा, उसी ने गौड़ के लिए मुसीबत खड़ी करदी । यद्यपि एसीबी पांच लाख के रिश्वत कांड की पड़ताल कर रही है ।
पहले एक राजनेता की तानाशाही की ओर इशारा किया था । आप सब जानते है कि राजनेताओं की कौम बहुत प्रभावशाली होती है । राजनेता के नाम को उजागर किया तो कई बेगुनाह लोग मारे जाएंगे । केवल इतना बताना चाहता हूँ कि इस राजनेता के बिना भरतपुर में पत्ता तक नही हिलता है ।
सारी कहानी बजरी के अवैध खनन और परिवहन के इर्द-गिर्द घूमती है । पुलिस से लेकर कई राजनेता बजरी के इस काले कारनामे में सक्रिय हिस्सेदार है । जो भी बजरी माफिया की राह का रोड़ा बनता है, उसको तुरन्त रास्ते से हटा दिया जाता है । भरतपुर और धौलपुर में प्रतिदिन कई करोड़ का अवैध कारोबार होता है ।
बजरी को लेकर एक राजनेता और डीआईजी के बीच काफी दिनों से तनातनी चली आ रही थी । कुछ व्यक्तियों को पकड़ने को लेकर डीआईजी पर राजनेता चढ़ पड़े । मां-बहिन की गाली दी गई । डीआईजी ने भी उसी अंदाज में राजनेता को जवाब दिया । दोनों ने एक दूसरे को देख लेने की धमकी दी । इस घटना के बाद डीआईजी बहुत दिनों तक डिप्रेशन में रहे । बताया जाता है कि रिश्वत के एपिसोड की पटकथा उसी दिन से लिखी जाने लगी ।
डीआईजी को सबक सिखाने का खेल प्रारम्भ हुआ, इसके मुख्य किरदार थे थानेदार चंद्रप्रकाश और पांच लाख की रिश्वत लेने वाले प्रमोद कुमार । यह सोलह आने सत्य है कि प्रमोद कुमार डीआईजी का मेहमान था । यह भी सही है कि उसने डीआईजी के बंगले से फोन करके कई थानेदारों आदि को धमकाया । यह भी सही है कि चंद्रप्रकाश ने पैसे दिए और प्रमोद ने प्राप्त किये ।
इस एपिसोड में इतना तो सही है कि प्रमोद डीआईजी के घर पर रुका था और वह उनका अच्छा परिचित भी है पर इसके आगे की केवल पटकथा है ।
असल बात यह है कि प्रमोद डीआईजी के घर आया था । चूंकि डीआईजी के गार्ड, धोबी सहित तीन जने कोरोना से संक्रमित होगये थे । ऐसे में प्रमोद को घर पर ठहराना डीआईजी की मजबूरी होगई थी । डीआईजी जब ऑफिस चले जाते, पीछे से प्रमोद थानेदारों को फोन कर धमकाता था । इस षड्यंत्र में कुछ गार्ड और अन्य कर्मचारी भी शरीक होगये ।
खैर ! थानेदार चंद्रप्रकाश द्वारा की गई शिकायत में कहा गया कि उसके पास डीआईजी बंगले से फोन आये है जिसमे पैसों की मांग की गई है । फोनकर्ता का कथन है कि तुम्हे डीआईजी का संरक्षण मिलेगा और तुम्हारी गोपनीय रिपोर्ट (एसीआर) ठीक कर दी जाएगी । सवाल यह पैदा होता है कि चंद्रप्रकाश को डीआईजी से किस प्रकार का संरक्षण चाहिए था । दूसरा सवाल यह है कि चंद्रप्रकाश की एसीआर डीआईजी के पास न तो लंबित थी और न ही विचारधीन ।अधिकारी व थानाधिकारी के बीच सीधे संपर्क रहते हैं तो थानाधिकारी ने डीआईजी से इस बाबत चर्चा क्यों नहीं की ? यह विचारणीय मुद्दा है ।
एसीआर पहले डीएसपी फिर एडिशनल एसपी ततपश्चात एसपी भरता है । अंत मे डीआईजी के पास जाती है । सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जब एसीआर डीआईजी के पास पेंडिंग नही थी तो पांच लाख की रिश्वत प्रमोद को थानेदार ने क्यो दी ? थानेदार डीआईजी से किस तरह का संरक्षण चाहता था, यह भी जांच का विषय है ।
मैं भी लंबे समय तक थानाधिकारी रहा हूं, हमारे से तो कभी ACR बाबत किसी ने कुछ नहीं मांगा और वास्तविकता तो यह भी है कि कोई सीनियर अधिकारी ACR remark के लिए मांग नहीं करता ।
-:थानेदार ने आरोप लगाया है कि डीआईजी ने उन्हें एपीओ किया ।
जानकारी करने पर ज्ञात हुआ कि पिछले दिनों प्रवासी मजदूरों की आवाजाही को लेकर यूपी और राजस्थान पुलिस के बीच झड़प होगई थी । थानेदार चंद्रप्रकाश ने यूपी पुलिस के एक कर्मचारी को मारा । इससे दोनों राज्यो के बीच विवाद उत्पन्न होगया । मथुरा के एसपी और कलेक्टर के समक्ष चंद्रप्रकाश को एपीओ करने का निर्णय हुआ । एसपी जैदी ने एपीओ के आदेश निकाले और उन्होंने ही वापिस चंद्रप्रकाश को थाने पर नियुक्त कर दिया । इस एपिसोड में डीआईजी का कोई लेने देना कहीँ नही है ।
बहरहाल । प्रथमदृष्टया ना तो डीआईजी को ईमानदारी का प्रमाणपत्र दिया जा सकता है और न ही रिश्वत खाने का तो बिल्कुल हो नहीं।
एक बात अवश्य है कि इस एपिसोड में कुछ षड्यंत्र अवश्य दिखाई देता है और इसमें सड़ यंत्र की बदबू दूर दूर तक अा रही है ।
SHO ने रिश्वत क्यों दी जबकि डीआईजी के पास उसका कोई काम पेंडिग ही नहीं था । एफआईआर में डीआईजी के नाम का कोई उल्लेख क नही है।
थानेदार के पास करोड़ो की संपति कहाँ से आई ? ऐसी क्या मजबूरी थी कि रिश्वत की राशि देने के लिए थानेदार को कर्जा लेना पड़ा । इस कहानी में कुछ तो झोल अवश्य है ।
वर्तमान में देखा जा रहा है कि बजरी माफिया, शराब माफिया, अवैध कब्जा माफिया, की तरह राजस्थान में
(A) झूट मुकदमा माफिया
(B) राजनीति माफिया
(C) आरटीआई माफिया
ये दोनों माफिया पिछले कई सालों से फलफूल रहे हैं, जिनके पास साइकिल होना भी स्वप्न होता था, आज उक्त माफिया से जुड़कर लोगों पर झूट मुकदमा कमीशन बेसिस पर दर्ज करवा रहे हैं, समझौते के नाम पर व सरकारी खजाने से लूट कर रहे हैं, और महंगी गाड़ियों के मालिक बन कर अयाशी करते घूम रहे हैं । इसी तरह राजनैतिक आधार वाले कार्यकर्ता सरकारी अधिकरियों व कर्मचारियों के पोस्टिंग के नाम पर दुकान खोल बैठे है।
एक जगह से दूसरी जगह पोस्टिंग कराने की व मलाईदार पोस्टिंग कराने की रेट ( एमआरपी) तय कर रखी है, सुविधाजनक पोस्टिंग के नाम पर व्यवसाय खुला हुआ है ।
भरतपुर एसीडी प्रकरण भी माफिया द्वारा संचालित है, ऐसा प्रतीत होता है ।यह माफिया किसी भी अधिकारी को काम नहीं करने दे रहे, और यदि कोई सहशी अधिकारी ईमानदारी से काम करता है तो इस प्रकार के चक्रव्यूह में फसाने के लिए माफिया तैयार बैठे हैं ।