मध्यप्रदेश के नागरिकों के सामने बड़ा संकट है, जो जनादेश उनने ५ साल के लिए दिया था उसकी शक्ल बदल गई है।इस शक्ल को बदलने में जो अक्ल लगाई गई, उसके कारण विधानसभा में अध्यक्ष नहीं है | सदन में प्रतिपक्ष का नेता नहीं है । कुर्सी पर काबिज मंत्रियों में से कोई किसी का है तो, किसी के पृष्ठ भाग पर किसी की सील लगी है ।इनमें कोई एक ऐसा नहीं है, जिसे नागरिक अपना कह सकें।पहले हर दल में कुछ भीष्म पितामह हुआ करते थे, जिनसे कुछ कहा-सुना जा सकता था।अब तो कब कौन कौरव- पांडव हो जाये और कब कौन सा कर्ण कवच कुंडल दान कर निहत्था हो जाये कहना मुश्किल है ।अमृत मंथन की पौराणिक कथा के सन्दर्भ को दूषित कर खुद को विषपायी कहने वालों असली ‘गरल-पान’ तो प्रदेश के नागरिक कर रहे हैं।
सामान्य तौर पर राष्ट्रपति/राज्यपाल को लोकसभा/विधानसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को ही सरकार बनाने के लिए बुलाना होता है।यदि किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ है [मध्यप्रदेश में यही तो चुनाव का नतीजा था] तो राष्ट्रपति/ राज्यपाल उस व्यक्ति को सरकार बनाने के लिए बुलाता है जिसमें दो या अधिक दलों का समर्थन प्राप्त करने की संभावना होती है और जो इस प्रकार के समर्थन से लोकसभा/विधानसभा में जरूरी बहुमत साबित कर सकता है। संविधान इस बहुमत प्राप्ति की प्रक्रिया पर मौन है, उसमें विधायकों को प्रदेश के बाहर ले जाकर रखने फिर सदन में जैसे तैसे बहुमत बताने की बात तो कतई नहीं है ।
इस प्रकार के संविधान इतर समीकरणों से ही तो वे समीकरण बनते हैं, जिससे जन प्रतिनिधि जनता के न होकर किसी एक गिरोह के सदस्य हो जाते हैं और मंत्री पद का लालच उन्हें दरबारों की कोर्निश बजाने को मजबूर कर देता है ।
यह प्रदेश के नागरिकों का दुर्भाग्य है यहाँ के सारे नेता मंत्री और मुख्यमंत्री ही बने रहना चाहते हैं। वर्तमान में जो प्रतिपक्ष है उसका भी नेता सदन में कौन है ? अभी तक इसका उत्तर किसीके पास नहीं है ।लगता है पिछले चुनाव में जिन्होंने वोट दिया, उनसे कहीं न कहीं चूक हुई, वे मतदाता समझदार थे जिन्होंने “नोटा” किया था।