मोहनीय कर्म के विलय से प्राप्त होता है सद्भाव : आचार्य महाश्रमण

पूज्य सन्निधि में मुनिश्री उदितकुमारजी लिखित शासनस्तम्भ मंत्रीमुनिश्री सुमेरमलजी की जीवनी ‘पुण्यात्मा’ पुस्तक का हुआ लोकार्पण

वी. बी. जैन ( 9261640571) जयपुर/बीदासर। धर्मसभा में आचार्य महाश्रमण जी ने कहा कि पुरुष अनेक चित्तों वाला होता है। आदमी की भाव धारा में एक ही दिन में बहुत परिवर्तन आ जाता है। आदमी के भीतर भावों का जगत है। सद्भाव भी है और असद् भावों का मूल भी भीतर में है। मोहनीय कर्म के उदय और विलय के बीच कई बार युद्ध की स्थिति बन जाती है। कभी मोहनीय कर्म का उदयभाव प्रभावशाली हो जाता है तो कभी मोहनीय कर्म का विलयभाव बलवान बन जाता है। ज्यों-ज्यों मोहनीय कर्म प्रबल होता है, त्यों-त्यों आदमी का व्यवहार, स्वभाव, आचार, रहन-सहन दुष्प्रभावित हो जाता है। मोहनीय कर्म जैसे-जैसे क्षीण होता है, वैसे-वैसे आचार, व्यवहार, संस्कार, चित्त आदि अच्छे हो जाते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि सद्भाव मोहनीय कर्म के विलय से प्राप्त होता है और असद्भाव मोहनीय कर्म के उदय से प्राप्त होता है। आठ कर्मों में राजा मोहनीय कर्म होता है। शरीर में मस्तक का स्थान है, वैसे ही कर्मों में मोहनीय कर्म का स्थान है। वृक्ष में जो स्थान मूल का होता है, वही स्थान मोहनीय कर्म को प्राप्त है। मोहनीय कर्म नहीं रहेगा तो शेष कर्म भी विशेष रूप से नहीं रह पाएगा। मोहनीय कर्म से आत्मा को बहुत बड़ा खतरा है। मोहनीय कर्म एक सर्प की भांति खतरनाक है। चित्त की शुद्धि के लिए आदमी को मोहनीय कर्म को क्षीण करने अथवा हल्का करने का प्रयास करना चाहिए। आदमी के जीवन में शरीर, वाणी, मन आदि सबका योग है। कर्म के बंधन में मन की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। मन में कोई भाव उभरता है तभी शरीर किसी कर्म को करने को तत्पर होता है। जब मन का सहयोग प्राप्त होता है तो शरीर कोई बड़ा पाप कर लेता है। आदमी को अपने मन को सुमन बनाने का प्रयास करना चाहिए। आदमी में अपने मन और चित्त को शुद्ध बनाने का प्रयास हो, इसके लिए आदमी को अपने भावों को शुद्ध बनाने का प्रयास करना चाहिए। जैसी भावना होती है, वैसी ही प्रवृत्ति शरीर से हो जाती है। अध्यात्म जगत में ध्यान का बहुत महत्त्व है। साधकों को ध्यान कराया जाता है, उसकी विधा बताई जाती है। ध्यान करने का मूल उद्देश्य चित्त को शुद्ध बनाना होता है। ध्यान की साधना के द्वारा आदमी को अपने चित्त को शुद्ध बनाने का प्रयास करना चाहिए। परम पूज्य आचार्य तुलसी ने अणुव्रत तथा आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने प्रेक्षाध्यान, जीवन-विज्ञान के माध्यम से लोगों के चित्त शुद्धि का प्रयास किया। इससे कितने लोगों को लाभ प्राप्त हुआ। आदमी को ध्यान आदि के प्रयोग के द्वारा अपने चित्त शुद्धि का प्रयास करना चाहिए। यह काम्य है। उक्त जीवनोपयोगी ज्ञान जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा के प्रणेता, अध्यात्म जगत के महासूर्य आचार्यश्री महाश्रमणजी ने बीदासर समाधिकेन्द्र से शनिवार को अपने प्रातःकाल के मुख्य प्रवचन कार्यक्रम के दौरान श्रद्धालुओं को प्रदान की।

बीदासर की धरती पर प्रवासित आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के पश्चात् मुनिश्री उदितकुमारजी(आचार्यश्री महाश्रमण जी के गुरुभाई) द्वारा लिखित शासनस्तम्भ मंत्रीमुनिश्री सुमेरमलजी (लाडनूं) के जीवनवृत्त पर आधारित पुस्तक ‘पुण्यात्मा’ को जैन विश्व भारती मान्य विश्व विद्यालय के वाइस चांसलर बच्छराज दूगड़, बीदासर मर्यादा महोत्सव व्यवस्था समिति के अध्यक्ष कन्हैयालाल गिड़िया, धर्मचंद लूंकड़, जीवन मालू सहित कई गणमान्यों ने पूज्यचरणों में लोकार्पित किया। इस अवसर पर मुनि उदितकुमारजी, मुनि अनंतकुमारजी तथा पुष्पा बैंगानी ने अपनी विचाराभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने पुस्तक के संदर्भ में मंगल आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहा कि इस ग्रंथ के पठन से पाठक को अच्छी प्रेरणा मिलती रहे। बीदासर ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने अपनी भावपूर्ण प्रस्तुति के माध्यम से पूज्यचरणों में अपनी प्रणति अर्पित की। साध्वी प्रणवयशाजी ने अंग्रेजी भाषा में तथा साध्वी भव्ययशाजी ने हिन्दी भाषा में अपनी भावांजलि पूज्यचरणों में अर्पित कर पावन आशीर्वाद प्राप्त किया।