श्रीगंगानगर।[गोविंद गोयल] महिला वोटर ने महिला उम्मीदवार से किसी समस्या का जिक्र किया। बात आगे बढ़ी तो उम्मीदवार ने यह कह दिया कि आपके एक वोट से मुझे क्या फर्क पड़ता है। वोटर ने पूरी गली को बताया। गली मेँ से उस उम्मीदवार को एक वोट भी नहीं मिला। जबकि उम्मीदवार की गाड़ी पूरी गली के घर घर गई, वोटरों को मतदान केंद्र ले जाने के लिए। मगर उस उम्मीदवार की गाड़ी मेँ कोई नहीं बैठा। उम्मीदवार जीतेगा, नहीं जीतेगा, उसका नसीब। किन्तु असहमति तो दर्ज हुई।

अब मतदान के दिन जो शहर का हाल था, उस पर आते हैं। हाल और बेहाल पर जनता का क्या रवैया था, इस बारे मेँ चर्चा कर लेते हैं। चर्चा कहना गलत है। क्योंकि चर्चा तो तब हो, जब नया कुछ हुआ हो। नया तो कुछ हो ही नहीं सकता था। क्योंकि शहर तो मुरदों का है। 16 नवंबर को मुरदों का मुरदापन सुबह से शाम तक दिखाई देता रहा। महसूस होता रहा। चूंकि मुरदे तो मुरदे हैं, उनके लिए सुविधा-असुविधा के कोई मायने नहीं। शहर के लगभग हर वार्ड की सड़कों, गलियों मेँ नाली के गंदे पानी के साथ मिल कर बरसात का पानी खड़ा था। टूटी सड़कों मेँ भरा ये बदबूदार पानी। गड्ढों वाली सड़कें। इधर उधर फैला कचरा। इन सबको देखते हुए, इनके बीच से निकल कर, उनसे बचते बचाते मतदाता आते गए और वोट डाल कर जाते रहे। किसी ने चूँ तक नहीं की। कहीं किसी वोटर ने किसी से कोई सवाल नहीं किया। ना तो किसी उम्मीदवार से इस बाबत कुछ पूछा और ना निवर्तमान पार्षद से। सब के सब यूं आए, जैसे किसी ने कुछ देखा ही नहीं। बिल्ली को देख कर कबूतर द्वारा आँख बंद कर लेने वाली कहावत का भावार्थ 16 नवंबर को समझ आया। ‘पार्षद कोई काम नहीं करते।

पार्षद बिके हुए है। सिस्टम भ्रष्ट है। जनप्रतिनिधि ईमानदार नहीं। मीडिया बिकाऊ है….’ ये वो शब्द हैं जो हर इंसान आते जाते बोलना अपना पहला कर्तव्य समझता है। इनसे भी हट कर ना जाने कैसे कैसे वाक्य जनता की ओर से बोले और सुने जाते हैं। लेकिन जनता ने शायद कभी ये चिंतन नहीं किया कि ऐसा क्यों होता है! ऐसा इसलिए होता कि जनता इतिहास से कोई सबक नहीं सीखती। यही कारण है कि इतिहास अपने आप को दोहराता रहता है। पूरे शहर का हाल बेहाल था। जनता शहर की सरकार चुनने को घरों से निकल रही थी। सब देख भी रही थी। इसके बावजूद सब के सब खामोश। कहीं किसी गली, मोहल्ले से कोई आवाज तो उठती! कोई तो चिल्लाता! कोई तो शोर मचाता! एक मतदाता तो कहता कि जाओ, हम नहीं डालते वोट! हम बहिष्कार करते हैं, इस वोटिंग का। कोई एक तो कहीं ये मांग करता कि जब तक मतदान केंद्र के आस पास से गंदा पानी नहीं हटता, वोट नहीं डालेंगे।

एक आवाज आती। दूसरा बोलता। तीसरा देखता। चौथा सुनता। पांचवें के माध्यम से बात आगे बढ़ती। संभव है, एक आम आदमी की यह आम आवाज शहर के प्रत्येक कोने मेँ सुनाई देने लगती! सामान्य वोटर की पीड़ा उन लोगों तक पहुँचती जो सेवादार बनने की कसमें खाते रहे हैं। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। होता भी कैसे! भला मुरदे भी कभी बोलते हैं! मुरदों का बस केवल शरीर होता है। और उस निष्प्राण शरीर को कहीं भी ले जाओ। कैसे भी ले जाओ। कोई फर्क नहीं पड़ता। वह ना तो असहमति जताता है और ना विरोध करता है। विद्रोह की कल्पना तो की ही नहीं जा सकती। क्योंकि विद्रोह तो असहमति और विरोध के बाद की अवस्था है। जो शहर अपने मुरदेपन से बाहर निकल असहमत होने वाले मुद्दे से भी असहमत नहीं होता। ना चूँ करता है और ना चीं करता है, बस नजर नीचे किए हर असुविधा का सामना करता चला जाता है, ऐसे शहर का क्या भविष्य होगा ! अब ऐसे शहर को कोई मुरदों का शहर ना कहे तो फिर क्या कहे ! दो लाइन पढ़ो-मेरा नाम भी आएगा तेरे नाम के साथ
तेरी जीत से ज्यादा मेरी हार के चर्चे होंगे। [स