उनका परिवार डेरा इस्माइल ख़ान से आया था। मैं उन्हें पंजाबी कहता तो फ़ौरन बात काट कर कहते थे – हम सरायकी हैं, जनाब। दिल्ली शरणार्थी बस्ती से टीवी पत्रकारिता की बुलंदी छूने का सफ़र अपने आप में एक दास्तान है।
दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई — “जैसी करते थे, करते थे” — के साथ कुछ रंगमंच का तजुर्बा हासिल करते हुए टीवी की दुनिया में चले आए। कीर्ति जैन ने उनकी प्रतिभा को पहचाना, यह बात उन्हें हमेशा याद रही। दूरदर्शन सरकारी था। काला-सफ़ेद था। उन्होंने उसमें पेशेवराना रंग भर दिया। उनके मुँहफट अन्दाज़ ने किसी दिग्गज को नहीं बख़्शा। जनवाणी केंद्रीय मंत्रिमंडल के रिपोर्ट-कार्ड सा बन गया, जिसे प्रधानमंत्री राजीव गांधी तक देखते थे।
कम लोगों को मालूम होगा कि विनोद कभी कार्यक्रम की स्क्रिप्ट नहीं तैयार करते थे। न प्रॉम्प्टर पर पढ़ते थे। बेधड़क, सीधे। दो टूक, बिंदास। कभी-कभी कड़ुए हो जाते। पर अमूमन मस्त अन्दाज़ में रहते। परख के लिए आतंकवाद के दिनों में पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह से बात की। उन्हें कुछ गाकर सुनाने को कहा। ना-ना-ना करते गवा ही बैठे।
विनोदजी का हिंदी और अंगरेज़ी पर लगभग समान अधिकार था। प्रणय रॉय के साथ चुनाव चर्चा की रंगत ही और थी। बाद में विनोदजी ने अपनी कम्पनी बनाई। उससे परख, अख़बारों की राय जैसे अनेक कार्यक्रम दिए। पर वे कार्यक्रम रहे उनके गिर्द ही।
फिर वे अपने पुराने मित्र के चैनल एनडीटीवी इंडिया से आ जुड़े। चैनल की शान बने। राजनेताओं से उलझना उनकी फ़ितरत में था। चाहे किसी भी पार्टी के हों। चैनल ने बाद में उन्हें ज़ायक़ा इंडिया का जैसा कार्यक्रम दे दिया। उन्हें खाने-पीने का शौक़ था। कार्यक्रम के लिए देश में घूमा किए। चाव से। हम देश के लिए खाते हैं, उनका लोकप्रिय जुमला बना।
पर दिल से वे राजनीति के क़रीब थे। उन्होंने अंततः ज़ायक़ा बदल दिया। आइबीएन-7 का एक कार्यक्रम पकड़ा। मुझे मालूम था कि वहाँ निभेगी नहीं। सहारा समूह में सुबह के अख़बारों वाले कार्यक्रम प्रतिदिन से काफ़ी पैसा मिलता था। किसी बात पर सहाराश्री से खटपट हुई। मेरे सामने — आईआईसी के बगीचे से — लखनऊ फ़ोन किया और गाली से बात की। क़िस्सा ख़त्म।
मगर सिद्धार्थ वरदराजन के साथ वायर में उनकी ख़ूब निभी। जन की बात जबर हिट हुआ। मोदी सरकार पर इतना तीखा नियमित कार्यक्रम दूसरा नहीं था। पर मी-टू में वे एक आरोप मात्र से घिर गए। वायर ने नैतिकता के तक़ाज़े पर उनसे तोड़ ली। जो असरदार सिलसिला चला था, थम गया। बाद में सिद्धार्थ इससे त्रस्त लगे और विनोद भी।
इसके बाद भी विनोद सक्रिय रहे। नए दौर के यूट्यूब चैनल एचडब्ल्यू न्यूज़ पर उनका विनोद दुआ शो चलने लगा। पर पहले अदालती संघर्ष — जिसमें वे जीते — और फिर कोरोना से लड़ाई — उससे भी वे निकल आए। लेकिन कमज़ोरी से घिरते चले गए। चेहरा उदासी में ढल गया। और, जैसा कि कहते हैं, होनी को कुछ और मंज़ूर था।
विनोद दुआ से मेरी दोस्ती कोई तीस साल पहले हुई। वे और मशहूर पियानोवादक ब्रायन साइलस चंडीगढ़ आए थे। मित्रवर अशोक लवासा — पूर्व निर्वाचन आयुक्त — के घर जलसा था। विनोद अशोकजी के सहपाठी रहे हैं। हमें नहीं मालूम था कि विनोद गाते भी हैं। हम खाना खाकर निकलने लगे तो विनोदजी ने बड़ी आत्मीयता से रास्ता रोकते हुए, मगर तंज में, कहा कि हम सीधे दिल्ली से चले आ रहे हैं और आप महफ़िल को इस तरह छोड़कर निकल रहे हैं।
और उस रोज़ की दोस्ती हमारे घरों में दाख़िल हो गई।
दिल्ली में बसने पर चिन्ना भाभी को क़रीब से जाना। उनमें विनोदजी वाली चंचलता और शरारत ज़रा नहीं थी। कम बोलती थीं, पर आत्मीय ऊष्मा और मुस्कुराहट बिखेरने में सदा उदार थीं। दक्षिण से आती थीं, मगर हिंदी गीत यों गातीं मानो इधर की ही हों। दोनों किसी न किसी दोस्ताना महफ़िल में गाने के लिए उकसा दिए जाते थे। तब लगता था दोनों एक-दूसरे के लिए अवतरित हुए हों।
दिल्ली में उनसे कमोबेश रोज़ मिलना होता था। कई दफ़ा तो दो बार; पहले टीवी स्टूडियो में, फिर आइआइसी में। लेकिन घर की बैठकें भी बहुत हुईं। चिन्ना भाभी के दक्षिण के तेवर जब-तब भोजन में हमें तभी देखने को मिले।
ग्यारह साल पहले जब हमारे बेटे मिहिर और ऋचा का जयपुर में विवाह हुआ, दुआ दम्पती घर के सदस्यों की तरह खड़े रहे। इतना ही नहीं, लंगा मंडली के गायन के अंतराल में विनोदजी और चिन्ना भाभी ने गीत गाए। सिर्फ़ राजस्थानी ढोल और करताळ की ताल पर, क्योंकि वही संगत उपलब्ध थी!
उनकी याद में आँखें नम हैं। लाखों की होंगी। डरपोक और ख़ुशामदी मीडिया के ज़माने में वैसी बेख़ौफ़ और प्रतिबद्ध प्रतिभा खोजे न मिलेगी।
बकुल-मल्लिका बहादुर हैं। पिछले लम्बे कष्टदायक दौर को उन्होंने धीरज से झेला है। उनका धैर्य बना रहे। हमारी सम्वेदना उनके साथ है।