– प्रतिदिन -राकेश दुबे
१४ अक्तूबर को भारत में सोशल मीडिया की स्थिति पर लिखे गये “प्रतिदिन” की समाज में व्यापक प्रतिक्रिया हुई।कई संदेश विभिन्न माध्यमों से आये। कुछ पक्ष और कुछ विपक्ष में। सबका अपना नजरिया होता है ।अब उससे थोडा और आगे ……!
सोशल मीडिया किसी देश के हालात को किस हद तक और कितनी तेजी से बिगाड़ सकता है, इसे समझना हो, तो हमें इथियोपिया के हालात पर गौर करना होगा। थोड़े समय पहले तक इस पूर्वी अफ्रीकी देश के हालात इतने अच्छे दिख रहे थे कि पूरा अफ्रीका में एक नई उम्मीद बांध रहा था और तो और, इस देश के प्रधानमंत्री अबी अहमद को विश्व शांति के लिए नोबेल पुरस्कार भी दिया गया था। पुरस्कार तो खैर उन्हें मिल गया, लेकिन कुछ ही महीनों के भीतर चारों तरफ से घिरे इस देश से शांति गायब होने लगी। जब इथियोपिया के लोकप्रिय गायक और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता हचलू हंडेसा की हत्या हुई, तो उसके बाद हिंसा का जो दौर शुरू हुआ, वह विश्व में मिसाल बन गया । इस देश में न जाने कितने दंगे और न जाने कितने सामूहिक हत्याकांड हो चुके हैं, अनगिनत इमारतें जलाकर राख कर दी गई हैं और यह तांडव रुकने का नाम नहीं ले रहा।
हमारे यहां भी यही हो रहा है, फेसबुक से नफरत फैलाने वाली सामग्री हटाने में आना-कानी की जाती है । ऐसा क्यों होता है कि सोशल मीडिया चलाने वाली कंपनियां नफरत फैलाने वाली सामग्री हटाने को आसानी से तैयार नहीं होतीं? भले ही वे हर समय सद्भाव की कितनी भी बातें करती रहें।
इसका एक कारण तो अच्छी और बुरी चीजों पर हमारा अलग-अलग ढंग से प्रतिक्रिया करना है, यानी जब हमें सोशल मीडिया पर कोई अच्छी चीज, सुभाषित या प्यार बढ़ाने वाली पोस्ट दिखती है, तो हम उसे पसंद करते हैं, और कई बार लाइक के बटन को भी दबा देते हैं। ज्यादा अच्छी लग जाए, तो उसे फॉरवर्ड भी कर देते हैं और फिर भूल जाते हैं। ऐसी पोस्ट बहुत ज्यादा हो जाएं, तो हम उन्हें नजरअंदाज करना शुरू कर देते हैं। इसके विपरीत जब कोई नफरत फैलाने वाली पोस्ट दिखती है, तब हमारी प्रतिक्रिया ऐसी नहीं होती। तब हमारी प्रतिक्रिया बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि हम उस नफरत के किस तरफ खडे़ हैं? अगर वह हमारी धारणा से मेल खाती है, तब हम उसे लाइक तो करते ही हैं, उसे बढ़-चढ़कर फॉरवर्ड भी करते हैं, दूसरों को भेजते भी हैं, उन्हें दिखाते भी हैं। उसका इस्तेमाल विपरीत विचारधारा वालों को चिढ़ाने के लिए भी करते हैं। अगर वह नफरती पोस्ट हमें नापसंद होती है, तो हम उस पर तीखी प्रतिक्रिया भी देते हैं। हम उस पर जो भी प्रतिक्रिया दें, आगे उस पर और प्रतिक्रिया होती है, फिर यह सिलसिला लंबा चलता है। अच्छी पोस्ट को हम भले ही कुछ समय बाद नजरअंदाज करने लगते हों, लेकिन नफरत सोशल मीडिया पर हमारी सक्रियता को बढ़ाती है।
यह नफरत कुछ वैसी ही है, जैसे हमारी नदियों में लंबे समय से प्रदूषण। जब तक नदियों का तंत्र, उसके जीव-जंतु, उसके आस-पास के जंगल इसे साफ करने में सक्षम थे किया, लेकिन जब से बड़ी-बड़ी फैक्टरियों ने नदियों को प्रदूषित करना शुरू किया, उन्हें साफ करना किसी के लिए संभव नहीं रहा। यही अब हमारे समाज और राजनीति की वही दुर्गति बहुत हद तक सोशल मीडिया कर रहा है। दुनिया प्रदूषण से मुक्ति के रास्ते तलाश रही है, लेकिन सोशल मीडिया के मामले में ऐसी चिंता अभी नहीं दिखाई दे रही। कम से कम भारत में तो नहीं, यहाँ तो पक्ष-प्रतिपक्ष ने नफरत वाया सोशल मीडिया को प्रमुख शस्त्र बना रखा है।