संपादकीय…
देश के पिछले पांच सालों के अगले -पिछले सन्दर्भों को याद करें तो लगता है हम एक ऐसे दौर में हैं, जिसमें मानवीय मूल्य बिखर चुके हैं। यह समझना मुश्किल है अपने को सुरक्षित रखने के लिए पतन की कितनी भी सीमा तक परहेज नहीं है । विकास के महायुद्ध में भ्रष्टाचार और राष्ट्रभक्ति के नाम पर हम अपने में मगन हैं और दूसरों को कुछ भी कहने में अपना बडप्पन महसूस कर रहे हैं। देश आर्थिक विपत्तियों में निरंतर फंसता जा रहा है। कानून कायदे और समूचे संस्थानों जो हो रहा है उससे जनतांत्रिक मूल्य स्वाहा हो रहे हैं ।
अब आलोचना करना गुनाह होता जा रहा है। हर ऑफिस धीरे-धीरे कब्रगाह बनता जा रहा है या बनने की प्रक्रिया में है। आप अनेक महीने चक्कर काट प्रतियोगिता अपनाइए, लेकिन काम होने की कोई गारंटी नहीं होती। चढ़ोत्री करने पर भी सहज ही किसी कार्य होने का कोई ठिकाना नहीं कि वह काम अन्ततोगत्वा हो ही जाएगा। डर नामक शब्द धीरे-धीरे हमारे जीवन, देश दुनिया से विदा हो रहा है। कोशिश हो रही है कि अब अच्छा और सच्चा आदमी किसी भी तरह जीने न पाए।
कानून प्रक्रिया आलोचना के विराट दायरे में आई है। मीडिया लगभग बिक चुका है। सत्ता ने उसे खरीद लिया है। उसमें कम लोग ही बचे हैं जो जनता के पक्ष में खड़े होने का साहस रखते हैं, यह साहस दुस्साहस कहा जा रहा है । शासन [सत्ताएं ]जनता को ‘भ्रष्ट’ करने पर आमादा हैं।
कहने-सुनने की सभी सीमाएं और सम्भावनाएं सील कर दी गई हैं। पूरे देश में अराजकता का बोलबाला है। यह हमारे समय की ‘कमेंट्री’ नहीं वरन जीवन्त हकीकत है। इसे सत्य माने तो सत्य गप्प माने तो गप्प। यह तो मन माने की बात है। जैसे सूरदास ने कहा था उधो मन माने की बात। सत्ता के मन में मनमाने की बातों का जलवा है। यह बेहद दु:खद और तर्कातीत समय है। यह सतत् निगरानी का वक्त है। कभी भी कुछ भी हो सकता है। इसलिए मेरे मित्र चन्द्रकांत देवताले कहते थे- यह खुद की निगरानी का वक्त है स्वयं बचिये अब आप को कोई बचाने वाला नहीं है। ये बातें मैंने खोट निकालने के लिए नहीं की। कोई भी पार्टी हो कोई भी बहाना अपनाये। कोई भी पार्टी देश से बड़ी नहीं हो सकती। दल आते हैं जाते हैं, लेकिन देश को दलदल न बनाएं। पता नहीं क्यों लोग हर बात में बहुत छोटी चीजें देखने के आदी होते जा रहे हैं।
देशहित एक बड़ा संवेदनशील मुद्दा है क्या इसी को हम राष्ट्रीय विकास कहेंगे । यदि विकास की यही परिभाषा है, तो अराजकता का पहला कदम कौन सा है ? यह विकास जनतंत्र को तहस-नहस कर रहा है | सत्ता परिवर्तन का प्रतिसाद यह सरकार है, व्यवस्था परिवर्तन आज की जरूरत है | देश के नागरिक सत्ता बदलते थे, बदलते हैं , लेकिन देश की मांग व्यवस्था परिवर्तन है |