प्रतिदिन -राकेश दुबे


वैसे तो जनतंत्र में समाज के किसी भी हिस्से को हाशिये के उस पार नहीं होना चाहिए, परन्तु केंद्र की भाजपा सरकार की इस हाशिये को मिटाने में रूचि नहीं है | प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना का और छह माह के लिए बढना इसका साफ उदहारण है। आज विश्व के हर देश को जिसमें वामपंथी शासन हो, दक्षिणपंथी अथवा लोकतंत्र, अपने-अपने समाज की आवश्यकताओं के हिसाब से सबको ‘लोक-कल्याणकारी योजनाओं’ के साथ ही चलना पड़ रहा है। राज्य पर बढ़ते आर्थिक दबाव के बावजूद गरीब कल्याण की योजनाएं लाते हैं | जो गरीब एवं अति गरीब को हाशिये से के उस तरफ खड़े होकर विकास के स्वप्न को देखने को मजबूर करते हैं | भारत भी इनसे इतर नहीं है |
प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना, अभी गरीब सामाजिक समूहों के करीब ८० करोड़ लोगों को लाभान्वित कर रही है |तभी तो उत्तर प्रदेश की नव-निर्वाचित सरकार ने भी मंत्रिमंडल की पहली बैठक में इस योजना को तीन माह के लिए बढ़ा दिया है। ९ राज्यों जिनमें चुनाव होना है, ऐसी योजनाये “वोट प्राप्ति” की सहज और सुलभ प्रक्रिया है |
यूँ तो प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना कोरोना दुष्काल में भयावह आघात झेल रहे गरीब सामाजिक समूहों को राहत देने के लिए शुरू की गई थी। लेकिन अब दुष्काल के नियंत्रित होने के बावजूद देश में रोजगार, अर्थव्यवस्था व समाज अपने सहज लय में नहीं आ पाए हैं, यही कारण बता गरीब कल्याण अन्न योजना का विस्तार किया गया है ।इतिहास बताता है राशन वितरण की परियोजनाएं दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में ९० के दशक के आसपास ही शुरू हुई थीं, लेकिन खाद्य सुरक्षा को कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने एक केंद्रीय पहल के रूप में लागू किया। २०१४ में जब भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार केंद्र में आई, तो उसने अनेक प्रकार की गरीब कल्याण योजनाएं शुरू कीं |कोरोना-दुष्काल में प्रारंभ की गई यह राशन योजना आज विश्व के सबसे बड़े खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के रूप में गिनी जा रही है।
भारत जैसा दक्षिणी एशियाई देश, में जनतंत्र कल्याणकारी योजनाओं के साथ ही आगे बढ़ता आ रहा है। ९०, के दशक में नव-उदारवादी व्यवस्था लागू होने के बाद बाजार के आक्रामक विस्तार के कारण कई व्याख्याकार मानने लगे थे कि भारत अपने लोक-कल्याणकारी मॉडल को छोड़ देगा। यह आशंका अब लगभग निर्मूल हो रही है, क्योंकि केंद्र ने नागरिकों को समर्थ बनाने की जगह बाजार के विस्तार दिशा में काम करते हुए भी अपनी कल्याणकारी प्रतिबद्धताओं को समाज में उतारा । उज्ज्वला योजना, डायरेक्ट कैश ट्रांसफर योजना, पेंशन योजना, आयुष्मान भारत योजना, मुफ्त राशन योजना, किसान सम्मान निधि जैसी कई योजनाएं शुरू की गई |ये सब हुआ पर हाशिये पर खड़ा आम आदमी जहाँ था वहीँ है|दूसरे शब्दों में कहें, तो ये परियोजनाएं ‘हाशिये के समाज’ को विकास के स्वप्न देखने की शक्ति मात्र ही प्रदान करती हैं।
वस्तुत:राज्य को ऐसी कल्याणकारी योजनाओं से धीरे-धीरे मुक्ति पा लेनी होगी। सामाजिक समूहों में उद्यमिता का विकास कर उन्हें स्वावलंबी बनाने की कोशिश करनी होगी। यह बात ठीक है, कि सरकार उद्यमिता विकास एवं स्वरोजगार सृजन के अनेक प्रयासों के जरिये इस दिशा में काम भी कर रही है, लेकिन गरीब कल्याणकारी योजनाएं आज समाज की जरूरत हैं और राष्ट्र की नैतिक प्रतिबद्धता भी।
यह ठीक है कि ऐसी लोकप्रिय योजनाओं से सत्तासीन दलों के पक्ष में राजनीतिक गोलबंदी होती है। परन्तु,इसे अगर विकास की राजनीति के संदर्भ में देखें, तो आगामी समय में जिस ‘विकास-लक्ष्य’ की तरफ देश को बढ़ना है, उसमें राजनीति को विकास केंद्रित होना ही पड़ेगा। राज्य-सत्ता को आर्थिक रूप से गतिशील समूहों, जैसे उद्योग, व्यवसाय, बाजार से जुडे़ लोगों के साथ ही लोकप्रिय गरीब कल्याण योजनाओं पर सतत रूप से कार्य करना होगा। केंद्र सरकार की विकास केंद्रित राजनीति, जिसके अंत्योदय एवं गरीब कल्याण एक जरूरी तत्व हैं, पिछड़ते दिखते हैं ।
ताजे विधानसभा चुनावों में ‘गरीब कल्याण का कैंपेन’ भाजपा के चुनाव-विमर्श का मुख्य तत्व रहा है | विकास केंद्रित राजनीति की अपनी चुनौतियां भी होती हैं। यह एक ऐसी लाभार्थी चेतना को विकसित करती है, जो सतत सक्रिय एवं विकासमान होती है। राष्ट्र को उस लाभार्थी चेतना को बार-बार बदलती जरूरतों के हिसाब से नई-नई योजनाओं के जरिये प्रतिक्रिया देना होता है। जो राजनीतिक दल या नेता खतरे उठाते हुए लक्ष्य को साधेगा भारत में सफल रहेगा |देखना है, नया भारत बनाने का मिशन हाशिये के किस तरफ से शुरू होगा ?