– प्रतिदिन -राकेश दुबे
कोरोना ने सबसे बड़ा नुकसान हिंदी भाषा का किया है ।हिंदी भाषी राज्यों के अधिकांश बोर्ड ने हिंदी को सबसे सरल मान उसके सारे विद्यार्थियों को पास कर दिया है । भले ही वे इस योग्य हो या नहीं ।हिंदी भारत के लगभग ६० प्रतिशत लोगों की मातृभाषा है और देवनागरी के अनुरूप लिखी जाने वाली मराठी और गुजराती को जोड़ ले तो यह संख्या ७५ प्रतिशत हो जाती है।वैश्विक रूप से देखें तो अंग्रेजी, मंदारिन और स्पेनिश के बाद हिंदी दुनियाभर में बोली जाने वाली चौथी सबसे बड़ी भाषा है। इसे राजभाषा का दर्जा मिला हुआ है। राजभाषा वह भाषा होती है, जिसमें सरकारी कामकाज किया जाता है, लेकिन हम सब जानते हैं कि लुटियंस दिल्ली की भाषा अंग्रेजी है और जो हिंदी भाषी हैं भी, वे अंग्रेजीदां दिखने की पुरजोर कोशिश करते नजर आते हैं।
हर साल हिंदी दिवस के अवसर पर एक ही तरह की बातें की जाती हैं कि हिंदी ने ये झंडे गाड़े, बस थोड़ी-सी कमी रह गयी है इत्यादि, लेकिन इस मौके पर हिंदी के समक्ष चुनौतियों पर कोई गंभीर विमर्श नहीं होता है।यह चर्चा भी नहीं होती कि सरकारी हिंदी ने हिंदी का कितना नुकसान पहुंचाया है।अगर सरकारी अनुवाद का प्रचार-प्रसार हो जाए, तो हिंदी का बंटाधार होने से कोई नहीं रोक सकता है। रही सही कसर गूगल अनुवाद ने पूरी कर दी है,इसमें अर्थ का अनर्थ होता है।कई संस्थानों में यही प्रमाणिक मान लिया जाता है। किसी भी देश की आर्थिक और सामाजिक प्रगति उस देश की शिक्षा पर निर्भर करती है। अच्छी शिक्षा के बगैर बेहतर भविष्य की कल्पना नहीं की जा सकती, अगर शिक्षा नीति अच्छी नहीं होगी, तो विकास की दौड़ में वह देश पीछे छूट जायेगा| राज्यों के संदर्भ में भी यह बात लागू होती है| शिक्षा के मामले में आज हिंदी पट्टी के राज्यों के मुकाबले दक्षिण के राज्य हमसे आगे हैं।
यह सही है कि मौजूदा दौर में यह कार्य दुष्कर होता जा रहा है. परिस्थितियां बदल रही हैं, युवाओं में भारी परिवर्तन आ रहा है. मौजूदा दौर में शिक्षक का छात्रों के साथ पहले जैसा रिश्ता भी नहीं रहा है, पर इतनी बड़ी संख्या में छात्रों का हिंदी में उत्तीर्ण करना इस बात की ओर इशारा करता है कि गुरुओं ने अपना दायित्व सही ढंग से नहीं निभाया है। इस जिम्मेदारी से हिंदी शिक्षक बच नहीं सकते हैं ।