करण समर्थ: आयएनएन भारत मुंबई
आज समस्त विश्व में भारतीय संस्कृती का बोलबाला होने लगा है, और सृष्टी तथा मानवी जीवन से संबंधित सभी पहलूओं पर विचार विमर्श करते समय भारतीय अध्यात्म को विशेष स्थान दिया जा रहा है। जिसके तहत इस्तांबुल, तुर्की की अंतरराष्ट्रीय विज्ञान परिषद में महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय द्वारा ‘डरावनी फिल्म (हॉरर मूवी)’ विषय पर अभ्यास के बाद विशेष निर्कर्षों सहित शोथ प्रस्तुत किया गया!
‘हॉरर’ फिल्मे समाज में नकारात्मकता फैलाती हैं ! – शोध का निष्कर्ष
कई लोगों की मनपसंद डरावनी फिल्मे – हॉरर मूवीज पर विश्व भर अभ्यास किया गया। इस के बाद जो कुछ सामने आया है, वह ऐसा है, इन डरावनी फ़िल्मों का मानव पर कितनी मात्रा में गहरा परिणाम होता है ? यह देखनेवालों के उस वक्त ध्यान में नहीं आता । जैसे अच्छे की ओर अच्छा तथा बुरे की ओर बुरा आकर्षित होता है, इस प्रकृति नियम अनुसार अत्यधिक नकारात्मकता वाली इन डरावनी फिल्मो का ‘सेट’, उसमें भूतबाधा, डर या दुःख से ग्रसित व्यक्ति की भूमिका करनेवाले कलाकार, लिखनेवाले लेखक अथवा ऐसा डरावनी फिल्मे देखनेवाले दर्शकों की ओर अधिक मात्रा में नकारात्मक शक्ति आकर्षित होती है । फलस्वरूप संहिता लेखक, निर्देशक और अभिनेता के माध्यम से अधिकाधिक नकारात्मकता प्रक्षेपित करनेवाले फिल्मो का निर्माण होता है, ऐसा प्रतिपादन महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय के शॉन क्लार्क ने किया ।
वह इस्तांबुल, तुर्कीस्तान में आयोजित ‘सिक्थ इंटरनेश्नल इंटरडिसप्लिनरी कॉन्फ्रेंस ऑन मेमरी एंड द पास्ट’ परिषद में अपना संशोधन प्रस्तुत कर रहे थे ।
शॉन क्लार्क जो भारतीय अध्यात्म तथा संस्कृति के जाने-माने अभ्यासक के रूप में विश्व में पहचाने जाते हैं। उन्होंने हाॅरर फिल्मो का आध्यात्मिक स्तर पर क्या परिणाम होता है ?’ यह शोधनिबंध प्रस्तुत किया ।
इस शोधनिबंध के लेखक महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय के संस्थापक परात्पर गुरु डॉ. जयंत बाळाजी आठवलेजी तथा सहलेखक शॉन क्लार्क हैं ।
शॉन क्लार्क ने ‘प्रभामंडल और ऊर्जा मापक यंत्र’ याने युनिवर्सल ऑरा स्कैनर (यूएएस), बायोवेल और सूक्ष्म परीक्षण के माध्यम से डरावनी फिल्मो के होनेवाले सूक्ष्म परिणामों का अध्ययन करने के लिए किए गए शोध का निष्कर्ष प्रस्तुत किया ।
‘यूएएस’ की जांच : इस जांच के अंतर्गत प्रयोगशाला के स्टुडियों में डरावनी फिल्म देखनेवाले सभी 17 व्यक्तियों की नकारात्मकता में लगभग 107 प्रतिशत वृद्धि हुई । जो उनके लिए निश्चित ही गंभीर स्थिति है। कुछ लोगों के संदर्भ में यह वृद्धि 375 प्रतिशत थी । प्रयोग के पहले जिन व्यक्तियों में सकारात्मक ऊर्जा का प्रभामंडल याने औरा था, वह 60 प्रतिशत तक अल्प हुआ तथा कुछ लोगों की सकारात्मक ऊर्जा का प्रभामंडल पूर्णत: नष्ट हुआ ।
‘बायोवेल’ द्वारा किया गया अध्ययन : फिल्म देखने के पूर्व एक व्यक्ति की जांच में उसके सभी चक्र लगभग एक रेखा में थे । उनका आकार भी बहुत बडा था । इसका अर्थ वह व्यक्ति स्थिर और ऊर्जावान थी । डरावनी फिल्म देखने के उपरांत उसके चक्र अव्यवस्थित दिखाई दिए और उनका आकार भी छोटा हो गया था, अर्थात वह व्यक्ति अस्थिर और उसकी सर्वसाधारण क्षमता अल्प हुई दिखाई दी ।
इस शोध द्वारा यही ज्ञात हुआ कि ऐसी डरावनी हाॅरर फिल्म देखने से केवल भावनात्मक परिणाम नहीं होते, अपितु सूक्ष्म स्पंदनों के स्तर पर होनेवाले भयंकर परिणामों का हमें बोध भी इससे पहले कभी ज्ञात नहीं हुआ था। जैसे के अध्यात्म शास्त्र अनुसार सूर्यास्त के उपरांत अनिष्ट शक्तियों का वातावरण पर अधिक परिणाम होता है, उस समय ऐसी नकारात्मक फिल्म देखना अधिक संकटदायक है, जिससे मानवी मनोदशा क्षतिग्रस्त होने की ओर बढ़ती है, ऐसी जानकारी इस शोध निबंध में उल्लेखित है, ऐसा महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय शोधकार्य विभाग के रुपेश लक्ष्मण रेडकर ने विश्लेषण किया ।
अपने वार्तालाप में उन्होंने, अंततः आज के मानवी शरीर कई सारे सामाजिक, मानसिक तथा शारीरिक आपत्तियों का सामना कर रहा है, तब हम स्वयं अपने शरीर की इम्युनिटी बढ़ाने की जरूरत को नजरंदाज करके अपनी शक्ति को कम करके अपने जीवन को ख़तरे में ढकेलने का क्या मतलब है, इससे अच्छा होगा कि हम अधिक से अधिक समय सकारात्मक बातों में लगाएं, ऐसा रुपेश रेडकर ने बताया।