जयपुर(तस्लीम उस्मानी)। हजरत मौलाना जियाउद्दीन साहब की दरगाह में बसंत की रस्म अदा की गई और अकीदतमंदों ने की दरगाह में बसंत पेश की । इस अवसर पर अनवार हुसैन सहित कई कव्वाल पार्टियों ने 700 साल पहले रचित अमीर खुसरो का कलाम मौलाना जियाउददीन के अंगना बसंत की बहार.. मौलाना के दर पर आज है बसंत… जैसे सूफियाना कलाम पेश किए। इससे पहले दरगाह बाजार से बसंत का जुलूस निकाला गया।

जिसमें दरगाह के सज्जादानशीन सैय्यद महमूद मियां, बादशाह मियां और जानशीन सैयद जियाउद्दीन जियाई,मोहम्मद खुसरो और तारिक इनायती ने शिरकत की। बसंत ऋतु की बयार, बसंती रंग के फूलों की महक, बसंती रंग के वस्त्र धारण किए हर धर्म और जाति के अकीदतमंदों ने बसंत उत्सव को यादगार बना दिया। इस मौके पर दरगाह की ओर से विशिष्टजनों की दस्तार बंदी भी की गई।

gyan vidhi PG college
अकीदतमंदों को बांटे मिट्टी के कुंजें

सैयद जियाउद्दीन जियाई ने बताया कि बसंत उत्सव सूफीवाद और भारतीय संस्कृति का समागम है जो कि हमारी गंगा-जमनी तहजीब का संदेश देता है। हमारे यहां बरसों से यह आयोजन हो रहा है। इस आस्ताने से अकीदत रखने वाले मिट्टी के बने कुंजों में सरसों के पीले फूल,गेंहू की बालियों को भरकर मौलाना साहब के आस्ताने पर पेश करते हैं। इसके साथ ही दरगाह की ओर से भी लोगों को कुंजे बांटे जाते हैं।

ऐसे शुरू हुई परंपरा

बादशाह मियां ने बताया कि इसकी शुरूआत के पीछे एक दिलचस्प घटना है। हजरत निजामुद्दीन को अपनी बहन के लड़के सैयद नूह से अपार स्नेह था। नूह बेहद कम उम्र में ही सूफी मत के विद्वान बन गए थे। और हजरत अपने बाद उन्हीं को गद्दी सौंपना चाहते थे। लेकिन नूह का जवानी में ही देहांत हो गया। इससे हजरत निजामुद्दीन को बड़ा सदमा लगा और वह बेहद उदास रहने लगे। अमीर खुसरो अपने गुरु की इस हालत से बड़े दु:खी थे और वह उनके मन को हल्का करने की कोशिशों में जुट गए। इसी बीच बसंत ऋतु आ गई। एक दिन खुसरो सैर के लिए निकले। रास्ते में हरे-भरे खेतों में सरसों के पीले फूल ठंडी हवा के चलने से लहलहा रहे थे। उन्होंने देखा कि प्राचीन कलिका देवी के मंदिर के पास हिंदू श्रद्धालु मस्त हो कर गाते-बजाते नाच रहे थे। इस माहौल ने खुसरो का मन मोह लिया। उन्होंने भक्तों से इसकी वजह पूछी तो पता चला कि वह ज्ञान की देवी सरस्वती को खुश करने के लिए उन पर पर सरसों के फूल चढ़ाने जा रहे हैं।

arham-english-academy
तब खुसरो ने कहा मेरे देवता और गुरु भी उदास हैं। उन्हें खुश करने के लिए मैं भी उन्हें बसंत की भेंट सरसों के ये फूल चढ़ाऊंगा। खुसरो ने सरसों और टेसू के पीले फूलों से एक गुलदस्ता बनाया। इसे लेकर वह निजामुद्दीन औलिया के सामने पहुंचे और खूब नाचे-गाए। उनकी मस्ती से हजरत निजामुद्दीन की हंसी लौट आई। तब से जब तब खुसरो जीवित रहे, बसंत पंचमी का त्योहार मनाते रहे। खुसरो के देहांत के बाद भी चिश्ती-सूफियों द्वारा हर साल उनके गुरु निजामुद्दीन की दरगाह पर बसंत पंचमी का त्योहार मनाया जाने लगा। मौसम और त्योहारों को धर्म से ऊपर उठ कर देखने की यह अनूठी परंपरा देश में कई साल से जारी है। सूफी कव्वाल सूफी संत अमीर खुसरो के गीत गाते हैं। गंगा-जमुनी तहजीब के गवाह रहे अमीर खुसरो के बसंती गीत अभी भी गूंजते रहते हैं।