श्रीगंगानगर।[गोविंद गोयल] निकाय प्रमुखों के चुनाव के लिए सरकार के नये आदेशों के बाद हल्ला मचा हुआ है। हल्ला यही कि अब पार्षदों की बोली लगेगी! पैसे वाला ही चुनाव लड़ सकेगा! भ्रष्टाचार का नंगा नाच होगा! ऐसे ऐसे व्यक्ति इस हल्ले मेँ अपनी आवाज मिला रहे हैं जो खुद इसी माध्यम से सभापति रह चुके हैं।

जबकि नये आदेश मेँ मात्र इतना ही तो नया है कि अब कोई भी व्यक्ति सभापति का चुनाव लड़ सकेगा। इससे पूर्व केवल निर्वाचित पार्षद सभापति का चुनाव लड़ने के योग्य था। अब कोई भी व्यक्ति इसके लिये अपना भाग्य आजमा सकता है। चुनाव तो पहले भी पार्षदों ने ही करना था, अब भी पार्षद ही करेंगे। फिर ये हाय तौबा क्यों! तो क्या अब तक सभी पार्षद निस्वार्थ भाव से सभापति चुनते रहे हैं। सवाल ये भी कि अब तक जो सभापति रहे, क्या वे मात्र अपनी योग्यता के बल पर चुने गए! नगर परिषद की स्थापना से लेकर आज तक ऐसा कौनसा बोर्ड था, जिसमें पार्षदों के वोटों की तथाकथित खरोद फरोख्त, पार्षदों की बाड़ेबंदी नहीं हुई। क्या अब तक रहे पूर्व और वर्तमान सभापति अपनी आत्मा पर हाथ रख ये कहेंगे कि पार्षदों ने उन्हें उनकी योग्यता के आधार पर सभापति चुना! किसी ने धन बल का कभी सहारा नहीं लिया। कितने पार्षद, पूर्व पार्षद हैं, जो अपने गुरु, बच्चे या इष्ट की शपथ लेकर ये कहने को तैयार हो कि वो लेन देन के मामले मेँ शामिल नहीं है।

उन्होने सभापति के उम्मीदवार के पक्ष मेँ मतदान करने के लिये कुछ नहीं लिया। अपना वोट नहीं बेचा! कोई दो चार अपवाद हों तो हों। वर्तमान बोर्ड मेँ बीजेपी पार्षदों की संख्या बहुत अधिक है, इसके बावजूद बीजेपी ना तो अविश्वास प्रस्ताव ला सकी और ना अपना सभापति बना सकी। बीजेपी नेताओं के पास है इस बात की जवाब कि बीजेपी टिकट पर निर्वाचित पार्षद किसके साथ हैं और थे! निर्वाचित पार्षद का वोट बिकेगा, नहीं बिकेगा, ये उसके खुद निर्वाचित पार्षद के ज़मीर पर निर्भर है। उसका विवेक तय करता है। वोट देने के बदले क्या ओबलीगेशन लिया, या लेगा, ये केवल उसे और देने वालों को मालूम होता है। एक एक उम्मीदवार वार्ड के चुनाव मेँ कई कई लाख रूपये खर्च करते हैं। ना जाने कितने वोटरों को शराब पिलाते हैं। वोटर के वोट खरीदे जाते हैं। उनके नखरे उठाते हैं।

पैसे लगा के सेवा करने की बात राजनीति मेँ तो बेमानी है। जिस राजनीति की नींव ही वोटरों के स्वार्थ से शुरू होती हो, उसमें ईमानदारी खोजना समय व्यर्थ करना है। उसमें जवाबदेही की तलाश भूसे के ढेर से सूई ढूँढने जैसा है। वोटर, वोटरों के ठेकेदार से शुरू होने वाला ये पैसे का खेल ऊपर तक इस प्रकार से पहुँच जाता है कि वे इंसान राजनीति को दूर से ही प्रणाम कर देते हैं, जिनके पास वार्ड, शहर और देश के लिये कुछ करने का विजन है। वे या तो पहले ही पायदान पर असफल हो वापिस लौट जाते हैं या फिर उसी मेँ रंग दिये जाते हैं, जिस रंग मेँ बाकी सब होते हैं। भ्रष्टाचार रोकना है तो पहले ही पायदान पर जनता को इसकी शुरुआत कर देनी चाहिए। हर वार्ड के वोटर लाएं ऐसे व्यक्तियों को आगे, जो बेदाग हैं। दें उनको अपना नेतृत्व, जो वार्ड और शहर के विकास मेँ अपना बड़ा योगदान दे सकते हैं। परंतु ये संभव नहीं। जिस देश के लोकतन्त्र को मात्र सत्ता पाने का साधन मान लिया जाए, वहां ऐसे व्यक्तियों की सत्ता मेँ भागीदारी असंभव है। जिस दिन वोटरों ने अच्छे, सच्चे, देश और समाज के हित मेँ काम करने वाले कर्मठ व्यक्तियों को चुनना शुरू कर देंगे, उस दिन शुरुआत होगी भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति की। तब तक तो वोटर से लेकर नेता तक सभी एक समान है।