दिल्ली में चुनाव जैसे जैसे नजदीक आ रहे है अप्रत्याषित घटनाए बढती जा रही है |छात्रों का हो रहा आन्दोलन को भी चुनाव की एक कड़ी बताया जा रहा है | उसमे हद तो तब हो गई कि एक धडा पिस्तौल लहराता है तो दूसरा धडा पिस्तौल चला ही देता है | जो हो रहा है लोकतंत्र व राजनीति को दूषित करते हैं | खैर ज्यादा पता तो पुलिसिया कार्यवाही के बाद ही पता चलेगी | बात करें राजनैतिक दलों के प्रचार स्तर की तो
प्रचार में उद्देश्यपूर्ण एवं जनकल्याणकारी मुद्दों पर शालीन एवं सार्थक बयानों की बजाय कड़वी भाषा का प्रयोग बताता है कि राजनीतिक स्तर पर कटुता बहुत ज्यादा बढ़ गई है। अगर समाज का एक वर्ग सरकार के किसी कदम से असहमत है तो उसकी शिकायत सुनना, उसकी गलतफहमी दूर करना और सरकार में उसका भरोसा बहाल करना उन्हीं का काम है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में विरोध का अधिकार हर व्यक्ति को है। लेकिन इस अधिकार का कोई वर्ग विशेष गलत इस्तेमाल करे तो उसे भी औचित्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता। सरकार, समाज और देश के प्रति विषवमन उचित नहीं है। ऐसे विषवमन के खिलाफ भारत के गृहमंत्री हों या वित्त राज्यमंत्री या कोई सांसद यदि माकूल जवाब देते हैं तो उन बयानों को कैसे गलत कहा जा सकता है ? नागरिकता कानून के विरोध में गैरकानूनी ढंग से धरना-प्रदर्शन कर रहे लोगों को कैसे जायज माना जा सकता है ?

सरकार, समाज और देश के प्रति विषवमन उचित नहीं है। सभी दलों में तीखे एवं कड़वे बयानों का प्रचलन बढ़-चढ़ कर हो रहा है। लोकतंत्र में इस तरह के बेतुके एवं अतिश्योक्तिपूर्ण बयान राजनीति को दूषित करते हैं, जो न केवल घातक है बल्कि एक बड़ी विसंगति का द्योतक हैं। राजनीतिक दलों में पनप रही ये कड़वे बोल की संस्कृति को क्या सत्ता हथियाने की राजनीति नहीं माना जाना चाहिए? लोकतंत्र एवं चुनाव प्रक्रिया को दूषित करने की राजनीतिक दलों की चेष्टाओं पर कौन नियंत्रण स्थापित करेगा। कहीं चुनाव सुधार की प्रक्रिया शेष न हो जाए, यह एक गंभीर प्रश्न है।
दिल्ली चुनाव का बड़बोलापन अवश्य विवादास्पद बनता जा रहा हैं, अनेक गलत बातों की जड़ चुनाव होते हैं इसलिए वहां निष्पक्षता, शालीनता एवं वाणी का संयम जरूरी है। दिल्ली के इस चुनावी कुंभ में इस प्रकार के हिंसक बयानों की आंधी का भय पहली बार जनता में व्यापक स्तर पर देखने को मिल रहा है।

दिल्ली के लोगों की वर्षों से एक मान्यता रही है कि हमारी समस्याओं, संकटों व नैतिक हृास को मिटाने के लिए कोई रोशनी अवतरित हो और हम सबको उबारे। कुछ तो राजनीतिक लोग अपनी प्रभावी भूमिका अदा करें ताकि लोगों में विश्वास कायम रहे कि अच्छे आदमी पैदा होने बन्द नहीं हुए हैं। देश, काल और स्थिति के अनुरूप कोई न कोई विरल परिस्थिति एवं राजनीतिक दल सामने आए, विशेष किरदार अदा करे और लोग उसके माध्यम से आश्वस्त हो जाएं, लेकिन इन चुनावों में ऐसा चमत्कार घटित होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है जो अच्छाई-बुराई के बीच भेदरेखा खींच लोगों को मार्ग दिखा सके तथा विश्वास दिला सके कि वे बहुत कुछ बदलने में सक्षम हैं तो लोग उन्हें सिर माथे पर लगा लें। जैसा कि हम जानते हैं कि लोग शीघ्र ही अच्छा देखने के लिए बेताब हैं, उनके सब्र का प्याला भर चुका है।

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