मातृत्व अवकाश और इस दौरान मिलने वाली वेतन सुविधाओं को अगर महिलाओं को मिली सहूलियत का हिस्सा मान भी लिया जाए तो भी कामकाजी महिला का गर्भवती होना और प्रसूति अब इतनी आसान नहीं है। एक बच्चे की परवरिश और अपने करिअर की चिंता दोनों को बराबर अहमियत देने वाली महिला के लिए जिंदगी किसी पतली रस्सी पर पैरों का संतुलन साधने जितनी मुश्किल हो जाती है।
मनो वैज्ञानिकों की राय में एक महिला जब बच्चे को जन्म देकर दफ्तर पहुंचती है तो उसे कंपनी और कर्मचारियों के सहयोग और सहानुभूति की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। लेकिन होता विपरीत है अनेक मामलों में मां बनने के बाद जब वे दफ्तर पहुंचती हैं तो ज्यादा जिम्मेदारी वाले कार्य सौंपने से परहेज किया जाने लगता है । मातृत्व को एक कमजोर कड़ी के रूप में परिभाषित करने से भी गुरेज नहीं किया जाता ।
यह एक बड़ी चुनौतीभरी स्थिति है। नये कानून के बाद बड़ी कंपनियों में महिलाओं की ज़रूरतों के बारे में एक हद तक कुछ सोचा जाने लगा है, लेकिन मध्यस्तर की कंपनियों की सोच ऐसी नहीं है। उनके पास इस तरह की सुविधा देने के लिए वित्तीय क्षमता न होने का सीधा बहाना भी होता है। देश में जब तक महिलाओं की प्रकृति के प्रति सही समझ नहीं विकसित होगी और सरकार की ओर से सकारात्मक एवं व्यावहारिक उपायों को बढ़ाया नहीं जाएगा, वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी पर सवालिया निशान बना रहेगा।जरा सोचिये ऐसे समय में जब महिला को उत्तम शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति और खुशनुमा माहौल की सबसे ज्यादा दरकार होती है, उससे उसकी नौकरी छीन कर उसे न सिर्फ मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है बल्कि आर्थिक रूप से भी कमजोर कर दिया जाता है। गर्भ धारण का पता चलते ही महिला कर्मचारी को नौकरी से निकाल देना कंपनी को सबसे अच्छा विकल्प जान पड़ता है। यह सब इस उम्मीद में किया जाता है कि वह खुद नौकरी छोड़ दे। ऐसा केवल छोटे संस्थानों में कार्यरत महिला कर्मचारियों के साथ नहीं हो रहा है, बल्कि बड़े-बड़े संस्थानों में भी महिलाएं गर्भावस्था के दौरान भेदभाव की शिकार हो रही हैं। यह जितना गैर-कानूनी है उतना ही अमानवीय भी है।