प्रस्तुत कर्ता : हरप्रकाश मुंजाल, अलवर ।

मेहनत के बलबूते से किस तरह सफलता मिलती है उसके जीते जागते उदाहरण है अलवर से प्रकाशित होने वाले दैनिक अरुण प्रभा के प्रकाशक श्री सुशील झालानी जी । उन्होंने दिन रात हाड़ तोड़ मेहनत कर अरुण प्रभा को अग्रणी पंक्तियों में ला खड़ा किया है । एक पन्ने से शुरू हुआ अखबार अब 6 पेजों वाला अखबार हो गया है ।
27जून81 को शुरू हुए इस अखबार को ऊचाइयों तक ले जाने में सुशील झालानी का बहुत बड़ा योगदान रहा है । विभन्न झँजावतो से झूझते हुए अब एक सम्मानजनक कतार में आ खड़े हुए हैं ।
जिस दिन यह अखबार शुरू हुआ उसी दिन से हमारा भी पत्रकारिता में प्रवेश हुआ । शुरू के दिनों में यह ट्रेड्ल प्रेस पर छपता था तब किथुर गांव का वेद प्रकाश मेकअप मेन हुआ करता थे ।दुर्गा प्रसाद मशीन चलते थे । इनके सहायक के रूप में घनश्याम, अनिल सक्सेना, हीरा लाल हुआ करते थे । कम्पोजिंग का जिम्मा जमना सैनी पर था । कई लोग पार्ट टाइम में सरकारी प्रेस से आया करते थे । अखबार का सम्पदकीय विभाग श्रीईशमधु तलवार के कंधों पर था । मार्केटिंग और प्रसार का जिम्मा श्री सुशील जी पर था । रात भर जागते थे । एक पन्ने वाले अखबार को चार बार मे छापना पड़ता था । बाद में आगरा से बड़ी मशीन लाये और छपाई फिर व्यवस्थित होने लगी ।
अब अखबार की छपाई ऑफसेट पर होती है ।सब कुछ आधुनिक तकनीक से होता है ।अलवर के अलावा भरतपुर, जयपुर के अलग संस्करण निकलते हैं ।
सुशील जी सामाजिक सरोकारों से भी जुड़े हुए हैं । यहां के गांधी स्वास्थ्य सदन समिति से भी जुड़े हैं । हर वर्ष योग दिवस पर बड़े पैमाने पर कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं । चक्रधारी हनुमान समिति के आजीवन अध्यक्ष हैं । सेठ माखनलाल महावर ब्लड बैंक समिति के भी सदस्य हैं

भारतीय प्रेस परिषद के भी सदस्य रह चुके हैं ।
सुशील जी समय समय पर प्राकृतिक आपदाओं के दौरान पीड़ितों का सहायता करने में पीछे नही रहते हैं । अरुण प्रभा से पहले सुशील जी आरानाद अखबार में भी हिस्सेदार थे ।इससे पूर्व इनके पिताजी श्री भगवान सहाय झालानी जी ने साहित्यिक पत्रिका “मरुगन्धा” का भी प्रकाशन किया था ।सुशील झालानी समाचार पत्र प्रकाशक के साथ साथ सामाजिक कार्यकर्ता भी रहे हैं ।

अरुणप्रभा कार्यालय ने देश-प्रदेश को अनेक पत्रकार दिए हैं। यह कार्यालय पत्रकारों की पौधशाला (नर्सरी) कहलाता है। समाचार पत्र के प्रारंभिक दशक में यहां पत्रकार, साहित्यकार, बुद्धिजीवी और कलाकारों का आना जाना लगा रहता था।सुशील झालानी जी समाचार पत्र प्रकाशक के साथ साथ सामाजिक कार्यकर्ता भी रहे हैं। श्री चक्रधारी हनुमान जी सेवा ट्रस्ट हो या प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र, अपना स्वास्थ्य अलाउ नहीं करने के बावजूद वे इनकी गतिविधियों के सतत संचालन में जुटे रहते हैं। उन्होंने दशकों से नियमित गतिविधियां संचालित कर अलवर के प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र को पहचान और मुकम्मल मुकाम दिलाया। इस केंद्र पर योग प्रशिक्षण शिविर में भाग लेने से सैकड़ों लोगों को स्वास्थ्य लाभ मिला है सुशील झालानी समाचार पत्र प्रकाशक के साथ साथ सामाजिक कार्यकरला चाहे सुशील जी एक पत्र-मालिक के रूप में अपने यहां के पत्रकारों को कभी पर्याप्त पारिश्रमिक नहीं दे पाए हों, लेकिन उनकी प्रशिक्षण शाला से पत्रकारों को बहुत कुछ सीखने को मिला।। सम्पदक का दायित्व निभाते हुए सुनील बिज्जू को तीस बरस से अधिक का समय हो गया है । अब इनके साथ सुनील जैन, गीतेश शर्मा , बाबूलाल यादव, धर्मेंद्र सेन आदि ।सुनील बिज्जू से पूर्व सम्पदक का दायित्व बलवंत तक्षक के पास था । संस्थापक सम्पदक ईशमधु तलवार जी है । सुशील जी चुस्त दुरुस्त रहे । दिर्घायु रहे । इसी कामना के साथ।

टिप्पणी –

अरुण प्रभा के प्रकाशक श्री सुशील झालानी जी पर आज आलेख लिखा तो अखबार के सम्पदक श्री सुनील बिज्जू जी की टिप्पणी ।कुछ लोग आपके नाम के साथ बरसो प्रेस लाइन में चलते ही नही होते अपरिहार्य सहकर्मी भी हो जाते है।सुशील जी से मेरा 33-34 वर्ष पुराना एसोसिएशन भी ऐसा ही है।बहुत से करीबी साथी इस स्थायित्व बाबत मजाकिया छेड़छाड़ करते है कि अखबारी लाइन में सम्पर्क में पत्रकार तो बहुत आए पर सुशील जी की कंजूसी के चलते कोई लंबे वक्त तक उनके साथ टिक नही सका। तुम इसलिए टिके क्योकि तुम आर्थिक रूप से इन पर निर्भर नही रहे वरना तुम्हारा ब्याह भी न होता। उन्होंने एक बुराई से सारी अच्छाइयों पर पानी फेर लिया है वगैहरा। लेकिन मेरा मानना अलग रहा है कि भले ही कोई आपके कार्य का उचित मूल्यांकन नही करे पर आपका हूनर (Skilled) नही छीन सकता।कई बार किसी को पैसे की नही उस परिवेश की ज्यादा जरूरत होती है जो कौशल बढाने का,सीखने का अवसर प्रदान करता है। वैसे मैं और सुशील जी अब इस झंझावत से बहुत आगे निकल आए है। आज यही सम्बन्ध छोटे-बड़े भाई के रूप में परस्पर आदरपूर्ण ढंग से स्थापित है। फिलहाल मैं उनके अखबार का सम्पादक भी हूँ,निजी तौर पर सलाहकार, दोस्त भी।

सुशील जी मूलतः एक शरीफ,कारोबारी व्यक्ति होने के साथ प्रच्छन पत्रकार भी है।।अलवर में स्थानीय दैनिक समाचार पत्र स्थापित करने की कोशिशों में जंहा बहुत से धुरंधरों के विभिन्न कारणों से पांव उखड़ गए वंही आज भी करीब 39 साल से सुशील जी का सफलतापूर्वक निरन्तर अखबार निकालते रहना एक व्यवसायिक सूझबूझ, चमत्कार से कम नही है।यह चमत्कार इसलिए भी कहलाता है क्योंकि सार्वजनिक रूप से अखबार के बारे में प्रारम्भ से अब तक सदैव घाटे में रहने की बात ही प्रचारित रही। हालांकि इस प्रचार का नकारात्मक असर यह भी रहा कि अरुण प्रभा में पत्रकार खुली मुट्ठी से नही, हमेशा बन्द मुट्ठी में ही अपना पारिश्रमिक पाता रहा।

प्रत्यक्षत तो सुशील जी का अखबार के प्रति वही जज्बा दिखता है जो व्यापारी का कारोबार से होता है।बस फर्क इतना है कि सुशील जी ने अखबार को सिर्फ और सिर्फ कारोबार ही नही समझा पेशे की पवित्रता,नैतिकता का भी पूरा ख्याल रखा। कभी आई बड़ी आर्थिक संकट की घड़ी में भी पलायन या समझौते की जगह चुनोतियो का सामना करना पसंद किया।वे अखबार का पत्रकारिक महत्व न सिर्फ जानते थे बल्कि इसके लिए समय समय पर सुधारात्मक उपाय भी करते रहे।अरुण प्रभा पर बहुत से मानहानि के मुकदमे भी हुए बजाए गुपचुप समझौते के ऐसी चोर-सीनाजोर आसुरी शक्तियों को बरसो संघर्ष कर अदालतों में परास्त ही किया।अनेक बार विज्ञापन दाताओं की ओर से आए अनुचित दबावों को लोभ वश मानने की जगह नजर अंदाज करना बेहतर समझा।

प्रत्येक व्यक्ति Intellectual Bias(बौद्धिक पूर्वाग्रही) होता है।पत्रकारों के साथ यह दिक्कत खूब पेश आती है जब वे एक धारणा के तहत अपनी लाइन चुनते है ऐसे में छोटे संस्थानों में कभी-कभी अखबार के मालिक की ओर से सम्पादकीय संस्था को आया सुझाव उपयोगी होता है और यह संतुलन बनाए रखने में भी मदद करता है।
अखबार मालिक के रूप में सुशील जी की पत्रकारों से वैचारिक साझेदारी हमेशा बनी रही। इससे सबसे बड़ा लाभ अखबार कर्मियों को ही मिला।धीरे-धीरे अरुण प्रभा की आंतरिक संरचना में ऐसा लोकतंत्र विकसित हो गया जंहा आगे चलकर पत्रकारों की च्वाइस का पलड़ा भारी होता गया। सुशील जी ने कभी किसी पत्रकार को धारा के विरुद्ध लिखने से नही रोका।बस एक संतुलित आलोचना और स्तर बनाए रखने का आग्रह जरूर रक्खा। वे अपनी आर्थिक परेशानियों से खुद निपटते थे लेकिन किसी पत्रकार की लेखकीय आक्रमकता को उन्होंने अपने व्यवसाय में बाधा या दोषी नही ठहराया। यही कारण है कि आत्मवालोकन की प्रथा के चलते अरुण प्रभा में कार्य करने वाले अधिकांश पत्रकारों की भाषा, चिन्हित व्यक्ति,संस्थान के विरोध में भी संयमित मिलेगी। भयादोहन,खीज या गुस्से की नही।आज अरुण प्रभा लोगो की कसौटी पर सफल-असफल अखबार कुछ भी हो सकता है पर अरुण प्रभा अपने पाठकों के समर्थन से अपनी उसी संतुलित राह पर चल रहा है जो इसके पूर्ववर्ती सम्पादकों की भी परंपरा रही है।

कहने में कोई संकोच नही, इस गलाकाटू प्रतिस्पर्धा में किसी अखबार का,वो भी एक अच्छे अखबार का टिके रहना अखबार निकालने वाले के हौंसले पर निर्भर करता है नही किसी सम्पादकीय संस्था पर। जिला स्तरो पर अखबार तो बहुत निकलते है पर अनियमित ढंग से गुपचुप गलियों में।सीमित संसाधनों,विज्ञापनों की सिकुड़ती रेवन्यू और बढ़ते खर्चो के बीच निकलते किसी अखबार के पास बहुत उन्नत तकनीक, बहुतेरी श्रम शक्ति और पूंजी का भड़कीला सौंदर्य भले ही न हो पर उसकी सादगी भी जनमत निर्माण में नए मूल्य गढ देती है।यह सब अखबार निकालने वाले के साहस और जोखिम पर ही तो निर्भर करता है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में, समग्र रूप से किसी छोटे-मंझोले अखबार का मूल्यांकन किया जाए तो उसमे अखबार मालिक का चरित्र ही अखबार का केंद्रीय प्रतिबिंब है।यह सुखद है कि सुशील जी की प्रतिष्ठा हमेशा स्थिर मानदंडों के अनुरूप रही।आज हम सुशील जी के बारे में जो भी Critical View रखते है,यह अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता भी उन्ही से पाई है।अरुण प्रभा का भीतरी,संस्थागत लोकतंत्र एक वास्तविक अखबारी लोकतंत्र है।कोई भी समाचार कर्मी अपनी निजी या अखबारी समस्या को खुलकर सुशील जी से साझा कर लेता है।उनकी राय के विरुद्ध अपनी राय को न सिर्फ प्रकट कर सकता है बल्कि उसे दृढ़तापूर्वक मनवा भी सकता है।पत्रकार अरुण प्रभा के दीगर किसी भी अन्य अखबारी संस्थान से,अखबारी व्यक्ति से स्थायी-अस्थायी सम्बन्ध रख सकता है।आजीविका के उसके अन्य स्रोत होने के साथ उसकी विचारधारा कुछ भी हो सकती है।यानि भौतिक विज्ञान की भाषा के सूत्र रूप में कहे तो फुल लिबर्टी,जीरो ग्रेविटी (Full liberty zero gravity) ऐसे खुले माहौल में कार्यरत किस पत्रकार को नही लगेगा कि अखबार उनकी सलाह,नीति पर नही चल रहा?
यंहा यह बताना भी उचित रहेगा कि इन तमाम आजादियों के बावजूद अखबार में ऐसा स्व निर्मित अनुशासन भी रहता है कि कोई पत्रकार कतिपय स्वार्थ के चलते अखबार को यूज (Use) नही कर सकता।उसे सब क्षुद्रताएँ छोड़ तटस्थ ही रहना होता है।

यंहा यह भी गौर तलब है कि जब कोई दैनिक अखबार अपना करीब 39 साला सफरनामा पूरा करता है तो वह पीछे पत्रकारों की एक फ़ौज भी तैयार कर जाता है।एक नर्सरी की तरह यंहा युवाओ में पत्रकारिता के बीजारोपण हुए। फूल खिले गुलशन-गुलशन की तर्ज पर पचासो पत्रकार आज विभिन्न प्रतिष्ठित अखबारों में कार्यरत है।यह सब एक अखबार के निरन्तर वजूद में रहने और उसके केंद्र में एक जीवटधारी इच्छा शक्ति से ही संभव हो पाया।

ये सब छोटी,मामूली बाते नही। समाचार संस्थानों में आज जो शोषण,घुटन, हस्तक्षेप,असुरक्षा है,अखबार जगत के लोग जानते तो है पर प्रकट नही कर पाते। कोई इसका अर्थ कुछ भी निकाले लेकिन अखबार मालिक की उदार,मानवीय नीतियों के बिना पत्रकार ऐसी स्वतन्त्रता को नही पा सकते।सुशील जी ऐसे ही अखबार के मुद्रक, स्वामी,प्रकाशक है।

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