– सरकार से या प्राधिकरण से आखिर कौन तय करेगा…???
जयपुर,”दिनेश अधिकारी”। न्यायिक कर्मचारी संघ के प्रदेश अध्यक्ष सुरेंद्र नारायण जोशी ने कहा कि अतिरिक्त कार्य के लिए,अतिरिक्त भुगतान /मानदेय मिलने पर ही प्रदेश के करीब 14000 न्यायिक कर्मचारी लोक अदालतों के होने वाले अतिरिक्त कार्य को करेंगे। विधिक सेवा प्राधिकरण के गठन के दौरान ध्येय वाक्य ” न्याय सबके लिए ” फाइलों और लेटर हेड तक ही सिमट कर रह गया है। न्यायिक कर्मचारियों को लोक अदालतों में संपादित होने वाले तमाम कार्य रूटीन की ही तरह विधिक प्रक्रिया अपनाकर ही पूरा करना होता है। नोटिस जारी करने से लेकर राजीनामे तक की पत्रावली एक तमाम कार्यवाही एक निश्चित विधिक प्रक्रिया को पूरा करने के बाद ही आदेश स्थिति तक लाई जाती है। जहां न्यायिक कर्मचारियों को रूटिंन अदालतों की फाइल के प्रोसेस को अपनाना पड़ता है ,वह सभी कार्यवाही इन लोक अदालत वाली पत्रावली पर भी दोहराना पड़ता है। विधिक सेवा प्राधिकरण की स्थापना के दौरान श्रम नियमों का ध्यान रखते हुए नालसा के आदेश दिनांक 23 फरवरी 91 में देश के सभी राज्यों को आदेशित कर कहा की लोक अदालतों के दौरान अतिरिक्त काम लेने पर न्यायिक कर्मचारियों और पीठासीन अधिकारियों को उनके मूल वेतन के अनुसार दो दिवस के बराबर मानदेय का भुगतान पात्र को दिया जाए। मासिक लोक अदालतों के दौरान यह भुगतान दिया जाता रहा। सरकार के विधि ग्रुप 2 विभाग के आदे शांक 989 दिनांक 28 नवंबर 2018 को वित्त विभाग की टिप्पणी सहित वरिष्ठ मुंसरिम और वरिष्ठ निजी सहायक को राजपत्रित पद मानते हुए लोक अदालतों में संपादित कार्य के लिए लिपिक वर्ग से संबंधित नहीं होने के कारण उन्हें मूल वेतन की गणना दो दिवस के वेतन के बराबर मानदेय दिए जाने को अस्वीकार कर दिया। जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ है और विधिक सेवा प्राधिकरण के स्थापना के लक्ष्यों को पूरा करने में भटक रहा है और श्रम विभाग के नियमों की अवहेलना भी हो रही है। एक तरफ सरकार करोड़ों रुपए विज्ञापनों के माध्यम से खर्च कर होल्डिंग बैनर पोस्टरों पर राजकोष का धन लूट आ रही है ,जबकि धरातल पर स्थिति यह है प्रशासनिक आदेशों में ही द्विभाषी हो रहा है । “न्याय सबके लिए ” स्लोगन को अखबारों की सुर्खियां बनाने से आम जन को न्याय की कैसे उम्मीद की जा सकती है। जब उसी विभाग के करीब 14000 कर्मचारी न्याय के लिए गत कई वर्षों से अपने अतिरिक्त श्रम का मानदेय लेने में ही न्यायालयों और सरकार मैं सुनवाई नहीं होने पर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को लेना पड़ रहा है संविधान में जिसकी स्थापना की गई थी। न्यायिक कर्मचारियों चक्कर लगाने पड़ रहे हैं ऐसी स्थिति में आमजन को समान न्याय कैसे मिलेगा—?
यह उदगार संघ प्रदेश अध्यक्ष जोशी पिंक सिटी प्रेस क्लब में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में मीडिया से मुखातिब होकर प्रकट किए इस अवसर पर उन्होंने कहा कि न्यायपालिका और कार्यपालिका का समन्वय ही मजबूत लोकतंत्र को स्थापित करता है जिसमें सरकार के विरोध स्वरूप अपनी आवाज को सरकार तक पहुंचाने के लिए चौथे स्तंभ मीडिया की जरूरत होती है जिससे सरकार अपने नियमों में आमजन के हित को ध्यान में रखकर संशोधन करें। आज भी न्यायपालिका में करीब 45 सौ न्यायिक कर्मचारियों के पद रिक्त चल रहे हैं ,उनका भी अतिरिक्त कार्य भार प्रदेश के 14000 कर्मचारियों पर ही है जो रूटीन वर्क में अपना फर्ज पूरा कर रहे हैं, लेकिन लोक अदालतों के कार्य में जो अतिरिक्त कार्यभार बढ़ रहा है उस अतिरिक्त श्रम का मानदेय सरकार और न्यायलय से मांगा जा रहा है जो गत कई वर्षों से उन्हें नहीं मिल रहा है जो कर्मचारियों के शोषण की पराकाष्ठा को पार कर रहा है और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत को की तमाम सीमाएं लांग रहा है ।श्रम विभाग के नियमानुसार अतिरिक्त श्रम का अतिरिक्त भुगतान मानदेय ओवरटाइम अन्य परिलाभ जो श्रम एक्ट में निर्धारित है। कार्यपालिका के आदेश की पालना करवाना न्यायपालिका की जिम्मेदारी है अगर उन आदेशों की कहीं अवहेलना होती है तो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत की पालना करते हुए न्यायपालिका सरकार से जनहित में पालना कराएं। आमजन के हितार्थ इस तरह का कोई भी मनमाना तुगलकी आदेश को वह राज्य सरकार से संशोधित करवाएं। यहां न्यायपालिका का ही कर्मचारी कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों के बीच शोषण का शिकार हो रहा है। वह अपने न्याय के लिए लोकतंत्र के कौनसे स्तंभ के पास जाएं यह सोचने का विषय है —-?? आखिर वह अपने श्रम का मानदेय प्राप्त करने के लिए प्राधिकरण के पास जाए या सरकार के पास –! क्योंकि यह कर्मचारियों का शोषण तो न्यायपालिका की देखरेख में ही चल रहा है सोचने का विषय है इस तरीके के विभाग के नियमों की अवहेलना करने वाले आदेश का खामियाजा प्रदेश के 14000 न्यायिक कर्मचारी ही क्यों भुगते……..???