

बात छोटी सी स्पष्ट और सरल है सतयुग में सतयुगी तो कलयुग में कलयुगी ही सुखी रहेगा। लेकिन जो आदर्श और नेकी का पाठ सीखने की कोशिश कर लेता है वह कही न कही दुखी हो जाता है। लेकिन हां जो यह कह दे “मैं क्या जानू मैं ठहरा अनपढ़” वह सबसे ज्यादा सुखी और जो किसी भी बात पर ज्यादा ध्यान ना दें वह भी बहुत सुखी है। आज होता क्या है पढ़ा लिखा छोटी छोटी बात पर विचार करने बैठ जाता है और उसमे इग्नोरेंस की ताकत नहीं होती है अतः तनाव पाल लेता है लेकिन जो अनपढ़ होता है उसे कोई फर्क नहीं पड़ता उसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर तो उसकी समझ और बुद्धि के लिए वह किसी और पर डिपेंड हो जाता है जो कोई उसे सलाह दे वह उसको सही मान लेता है, फालतू दिमाग नही दौड़ाता है और जब दिमाग नहीं दौड़ाएगा तो जबरन के विचार भी नहीं करेगा और जो होता है उसे भाग्य मान लेता है यह उसकी सबसे बड़ी संतुष्टि है इसलिए सुखी होने की डेफिनेशन में इस बात पर वजन बढ़ जाता है कि जो अनपढ़ और ज्यादा दिमाग ना दौड़ाए वह सबसे अच्छा ज्यादा सुखी। ऐसे व्यक्ति के ज्यादा खर्चे भी नहीं होते जब मिल जाए पहन लेंगे जो मिल जाए खा लेंगे जहां जैसा माहौल मिलेगा मस्त रहेंगे। फैशन का कोई रोल नहीं। ग्लैमर टीवी मोबाइल कार गाड़ी घोड़े का कोई मोह नहीं। हां ऐसे लोगों की एक दिक्कत जरूर है कि इन लोगों का शोषण कदम कदम पर हो जाता है।
अशोक मेहता, इंदौर (लेखक, पत्रकार, पर्यावरणविद्)